IBlogger interview
बुधवार, 6 फ़रवरी 2019
शनिवार, 2 फ़रवरी 2019
सिसकती यादें....
सिसकती यादें...
उस पुराने संदूक में
पड़ी थी यादों की
कुछ किरचें.
खुलते ही
हरे हो गए
कुछ मवादी जख्म.
जो रिस रहे थे
धीरे - धीरे.
खुश थे
अपनी दुर्गंध फैलाकर.
दफ्न कर के
मेरे सुनहरे ख्वाबों को,
छलनी कर चुके थे मेरी रूह को .
अपनी कुटिल मुस्कान
से चिढ़ा रहे थे मुझे.
निरीह असहाय
खड़ी देख रही थी मैं,
अपनी फूटी तकदीर को.
और सुन रही थी सिसकियाँ,
अपने टूटे हुए ख्वाबों और
अपनी अधूरी चाहतों की.
सुधा सिंह 📝
वो संदली एहसास...
वो संदली एहसास..
खुला
यादों का किवाड़,
और बिखर गई
हर्ष की अनगिन
स्मृतियाँ.
झिलमिलाती
रोशनी में नहाई
वो शुभ्र धवल यादें,
मेरे दामन से लिपट कर
करती रही किलोल.
रोमावलियों से उठती
रुमानी तरंगे और
मखमली एहसासों
के आलिंगन संग,
बह चली मैं भी
उस स्वप्निल लोक में,
जहाँ मैं थी, तुम थे
और था हमारे
रूहानी प्रेम का वो
संदली एहसास.
खड़े हो कर दहलीज पर,
जो गुदगुदा रहा था
हौले- हौले से मेरे मन को,
और मदमस्त थी मैं
तुम्हारे आगोश में आकर.
सुधा सिंह 📝
सोमवार, 28 जनवरी 2019
पथिक अहो...
पथिक अहो.....
मत व्याकुल हो!!!
डर से न डरो
न आकुल हो।
नव पथ का तुम संधान करो
और ध्येय पर अपने ध्यान धरो ।
नहीं सहज है उसपर चल पाना।
तुमने है जो यह मार्ग चुना।
शूल कंटकों से शोभित
यह मार्ग अति ही दुर्गम है ।
किंतु यहीं तो पिपासा और
पिपासार्त का संगम है ।
न विस्मृत हो कि बारंबार
रक्त रंजित होगा पग पग।
और छलनी होगा हिय जब तब।
बहुधा होगी पराजय अनुभूत।
और बलिवेदी पर स्पृहा आहूत।
यही लक्ष्य का तुम्हारे
सोपान है प्रथम।
इहेतुक न शिथिल हो
न हो क्लांत तुम।
जागृत अवस्था में भी
जो सुषुप्त हैं।
सभी संवेदनाएँ
जिनकी लुप्त हैं।
कर्महीन होकर रहते जो
सदा - सदा संतप्त हैं ।
न बनो तुम उनसा
जो हो गए पथभ्रष्ट हैं ।
बढ़ो मार्ग पर, होकर निश्चिंत।
असमंजस में, न रहो किंचित।
थोड़ा धीर धरो, न अधीर बनो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।
पथिक अहो, मत व्याकुल हो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।
सुधा सिंह 📝
रविवार, 27 जनवरी 2019
यह भी तो कहो.....
ठहरो!!!
मेरे बारे में कोई धारणा न बनाओ।
यह आवश्यक तो नहीं,
कि जो तुम्हें पसंद है,
मैं भी उसे पसंद करूँ।
मेरा और तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य समान हो,
ऐसा कहीं लिखा भी तो नहीं।
हर जड़, हर चेतन को लेकर
मेरी धारणा, अवधारणा
यदि तुमसे भिन्न है...
तो क्या तुम्हें अधिकार है
कि तुम मुझे अपनी दृष्टि
में हीन समझ लो।
जिसे तुम उत्कृष्टता
के साँचे में तौलते हो,
कदाचित् मेरे लिए वह
अनुपयोगी भी हो सकता है।
तुम्हें पूरा अधिकार है
कि तुम अपना दृष्टिकोण
मेरे सामने रखो।
परन्तु मेरे दृष्टिकोण को गलत
ठहराना क्या उचित है??
क्या मैंने अपने कर्मों
और कर्तव्यों का
भली- भाँति
निर्वाहन नहीं किया???
क्यों मेरा स्त्रीत्व
तुम्हें अपने पुरुषत्व
के आगे हीन जान पड़ता है??
आख़िर कब तक मैं
अपने अस्तित्व के लिए तुमसे लडूंँ??
और यह भी तो कहो कि
अगर मेरा अस्तित्व खत्म हो गया
तो क्या तुम
अपना अस्तित्व तलाश पाओगे???
सुधा सिंह 📝
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