बिखरते रिश्ते |
हे शीर्षस्थ घर के मेरे
लखो तो
टूट टूटकर सारे मोती
यहाँ वहाँ पर बिखर रहे
कोई अपने रूप पर
मर मिटा है स्वयं
किसी को हो गया
परम ज्ञानी होने का भ्रम
किसी को अकड़ है कि
उसका रंग कितना खिला है
किसी को बेमतलब का
सबसे गिला है
न जाने सबको कैसा
कैसा दंभ हो गया है
एकता के सूत्र को
हर कोई भूल गया है
विस्मृत है सब कि छोटे
बड़े सब मिलकर
एक सुन्दर सा हार बने थे
जो इस प्यारे से कुल का
प्यारा अलंकार बने थे
खुशियों के दौर में
हृदय से हृदय सटे थे
किन्तु आह्ह....
क्यों सद्यः वे अपने ध्वनि
शरों से दूजे को वेधने डटे हैं
न जाने उन्हें किस ठौर जाना है
क्या अभिलाषा है, उन्हें क्या पाना है
अंत में जब सब-कुछ ,यहीं छोड़ जाना है
फिर क्यों किसी से शत्रुता ,क्यों बैर बढ़ाना है
लखो तो...
हे शीर्षस्थ घर के मेरे
फिर से आखिरी प्रयास करो ...
रेशमी लगाव में एक बार फिर से उन्हें गुंफों..
आशाओं की डोरी से कसकर बांधो..
कभी पृथक न हो इतनी सुदृढ हो गांठें
माला का विन्यास लावण्य मनोहारी हो यों
कि वे अपने नवरूप पर लालायित हो उठें
लखो तो..
एक बार लखो तो...
हे शीर्षस्थ घर के मेरे
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-07-2019) को " हम तुम्हें हाल-ए-दिल सुनाएँगे" (चर्चा अंक- 3383) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत शुक्रिया शास्त्री जी 🙏 🙏 🙏
हटाएंबहुत सुंदर कविता .... वाह, बहुत ख़ूब 🌹
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वर्षा जी 🙏 🙏. मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है. स्नेह बनाए रखियेगा. 🙏 🙏
हटाएंगहरी सोच छुपी है ... अच्छी रचना ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय 🙏 🙏 🙏
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