शनिवार, 31 अगस्त 2019

मेरी सपनीली दुनिया





ऐ मेरे नन्हें से दिल, तू धड़कता है न
अच्छा लगता है मुझे तेरा स्पन्दन
चल ले चलती हूँ आज तुझे
एक नई दुनिया में
और कराती हूँ सैर
अपनी उसी प्यारी सी दुनिया की
जिसके कोमल एहसास
को जीने के लिए
मैंने और तुमने भी तो
न जाने कितनी
रातें जग - जगकर
करवटों में गुजार दी

इस बेरहम दुनिया
की निष्ठुरता,
धोखे, चालबाजी और
झूठ को सहते सहते
जिंदगी गुजार दी
चल ले चलती हूँ तुझे
उस जहाँ में जहाँ
दुख, संताप, झंझट और
रोजमर्रा की परेशानियां नहीं है
जहाँ प्रेम की
अविरल धारा लगातार बहती है
जो मुझे अपने आगोश में
लेने के लिए बेताब रहती है
चल कराऊँ तुझे आज उसी
मखमली दुनिया की सैर
जो शायद सब की तकदीर में नहीं है
क्योंकि वे सपने नहीं देखते
बस अपने वर्तमान से
लड़ते लड़ते चूर होकर
हमेशा के लिए नींद की
आगोश में चले जाते हैं.

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

काश!!!

काश 
   काश 

दूर दूर तक
फैली सघन 
नीरवता, 
निर्जनता, 
हड्डियाँ पिघलाती 
जलाती धूप. 
सूखता कंठ, 
मृतप्राय 
शिथिल तन से 
चूता शोणित स्वेद 
अट्टहास करते, 
करैत से मरूस्थल 
की भयावहता सबकुछ 
निगल लेने को आतुर. 
परिलक्षित होती तब 
मृगमरीचिका,
जिसकी स्पृहा में 
निर्निमेष 
कुछ खोजता
लालायित मन. 
अभिप्रेत लक्ष्य 
जो ज्यों ज्यों होता
निकट दृश्यमान 
त्यों त्यों 
रहता है शेष, 
सिकत रेत. 
और शेष 
होता है, 
तो एक 
'काश '
और कभी न 
मिटने वाली 
जन्म जन्मांतर 
की मलिन प्यास. 

शनिवार, 17 अगस्त 2019

दर्द

पीड़ा
दर्द 



दर्द कहाँ सुंदर होता है

दर्द को भला कभी कोई अच्छा कहता है
दर्द सालता है 
दर्द कचोटता है, चुभता है
इसका रूप भयावह है

फिर दर्द को क्यों किसी को दिखाना

इसे छुपाओ तकिये में, गिलाफों में, 
किसी काली अँधेरी कोठरी में 
या बंद कर दो दराजों में 
ताले चाबी से जकड़ दो 
कि कहीं किसी  
अपने को दिख ना जाए
अन्यथा यह चिपक जाएगा उसे भी 
जो तुम्हें प्रिय हैं, बहुत प्रिय.. 

दर्द को छुपा दीजिए उसी तरह

जिस तरह घर में अतिथियों के आने से पहले छुपाए जाते हैं सामान 
अलमारियों के पीछे, कुछ खाट के नीचे, कि सब कुछ साफ़ सुथरा दिखना चाहिए
बिलकुल बेदाग.......
आडंबर का  पूरा आवरण ओढ़ लीजिए,  पहन लीजिए एक मुखौटा .....
कि यह दर्द बेशर्म है बड़ा 
उस नादान बच्चे की तरह...
जो हमारे सारे राज़ 
खोल देता है आगन्तुकों के समक्ष ...
और उसे भान भी नहीं होता 
दबा दीजिए उसे रसातल में, पाताल में या फेंक दीजिए उसे आकाश गंगा में ..
कि कहीं ये रूसवा न कर दे हमें
हमेशा- हमेशा के लिए... 





मंगलवार, 30 जुलाई 2019

कहाँ पाऊँ आपको..


कहाँ पाऊँ आपको, पापा...
किन राहों में आपकी तलाश करूँ
कुछ भी तो सूझता नहीं है अब
सब कुछ तो शून्य कर गये आप...

कहकर 'बहिनी' एक बार फिर से
मुझे पुकार लीजिये न पापा
कि आप के मुख से ये शब्द
सुनने को कान तरस रहे हैं..

लौट आइए पापा...
कि छलकने लगता है
वक़्त बेवक्त आँखों का समंदर
बिना आसपास देखे..
चहुँ दिश विकल हो खोजती हूंँ
मात्र आपको
कि कहीं तो आप दिख जाएँ
और झूठ हो जाए जीवन का
ये शाश्वत अकाट्य सत्य
और फिर से पा लूँ आपको...
नहीं मानता मन..
कि हर क्षण ही तो
महसूस होते हैं आप मुझे,
निगाहों से ओझल,
पर मेरे पास ही कहीं..

आपके जीवन में प्रवेश तो कर गई मैं
पर आपके लिये कहाँ कुछ कर पाई मैं ..
क्यों छोड़ गए मुझे कि
आपके अगाध स्नेह का
ऋण भी तो उतार न पाई मैं..

कैसी पुत्री हूँ मैं कि
जिसके जीवन को उजाले से
भर दिया आपने
हौसलों की उड़ान दी आपने
वह दूसरे के घर को कुलदीपक
देने के लिए आप से दूर हो गई.
समाज की यह कैसी रीति है
कि बेटियां बाबुल के पास रह नहीं पातीं

आपका कर्ज उतारना चाहती हूँ पापा
एक बार फिर से अपनी गोद का अलौकिक सुख दे दीजिए पापा
फिर से लौट आइए पापा🙏🙏🙏
फिर से लौट आइए.... 😔😔😔😔

रविवार, 30 जून 2019

हे शीर्षस्थ घर के मेरे...

Parivar, रिश्ते, लगाव
बिखरते रिश्ते 

हे शीर्षस्थ घर के मेरे
लखो तो 
टूट टूटकर सारे मोती
यहाँ वहाँ पर बिखर रहे 

कोई अपने रूप पर 
मर मिटा है स्वयं
किसी को हो गया 
परम ज्ञानी होने का भ्रम 
किसी को अकड़ है कि 
उसका रंग कितना खिला है 
किसी को बेमतलब का 
सबसे गिला है 

न जाने सबको कैसा 
कैसा दंभ हो गया है 
एकता के सूत्र को
हर कोई भूल गया है 
विस्मृत है सब कि छोटे 
बड़े सब मिलकर 
एक सुन्दर सा हार बने थे 
जो इस प्यारे से कुल का
प्यारा अलंकार बने थे 
खुशियों के दौर में 
हृदय से हृदय सटे थे
किन्तु आह्ह....
क्यों सद्यः वे अपने ध्वनि 
शरों से दूजे को वेधने डटे हैं 

न जाने उन्हें किस ठौर जाना है
क्या अभिलाषा है, उन्हें क्या पाना है 
अंत में जब सब-कुछ ,यहीं छोड़ जाना है
फिर क्यों किसी से शत्रुता ,क्यों बैर बढ़ाना है 

लखो तो...
हे शीर्षस्थ घर के मेरे
फिर से आखिरी प्रयास करो ...

रेशमी लगाव में एक बार फिर से उन्हें गुंफों..
आशाओं की डोरी से कसकर बांधो..
कभी पृथक न हो इतनी सुदृढ हो गांठें 
माला का विन्यास लावण्य मनोहारी हो यों 
कि वे अपने नवरूप पर लालायित हो उठें
लखो तो.. 
एक बार लखो तो... 
हे शीर्षस्थ घर के मेरे