देखो...
जमाने की नज़रों में
सब कुछ कितना
सुंदर प्रतीत होता है न
मांग में भरा
ये खूबसूरत सिंदूर,
ये मंगलसूत्र
सुहाग की चूडियाँ
ये पाजेब, बिछिया, ये नथिया...
और....
स्वयं में सिमटी हुई मैं...
जो बटोरती है कीरचें अहर्निश
अपनी तन्हाई के
और तटस्थ तुम...
तुम... न जाने कब तय करोगे
अपने जीवन में
जगह मेरी..
क्यों मांग मेरी
बन गई है
वो दरिया
जिसके दोनों किनारे
एक ही दिशा में गमन कर रहे हैं
पर आजीवन
अभिसार की ख्वाहिश लिए
तोड़ देते हैं दम
और चिर काल तक
रह जाते हैं अकेले... अधूरे...
ये ख्वाहिश भी
एक तरफा ही है शायद कि
तुम्हारा और मेरा पथ एक है
पर मंज़िल जुदा...