बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

तेरी यादों में रोया हूँ...




एक ग़ज़ल नुमा रचना

तेरी यादों में रोया हूँ....


हँसा हूँ तेरी बातों पे ,तेरी यादों में रोया हूँ
प्यार है बस तुझी से तो,प्यार के बीज बोया हूँ।

खटकता हूँ सदा तुझको, मुझे य़ह बात है मालूम ,
मगर सपने तेरे देखे ,तेरी यादों में खोया हूँ।

मेरी आँखों के अश्रु भी, तुझे पिघला सके न क्यों
तेरी नफ़रत की गठरी को, दिवस और रात ढोया हूँ।

कदर तुझको नहीं मेरी, तेरी खातिर सहा कितना,
मिली रुस्वाइयाँ फिर भी, प्रीत - माला पिरोया हूँ ।

गए हो लौटकर आना, कभी दिल से भुलाना ना,
नहीं मैं बेवफा दिलबर, वफ़ा में मैं भिगोया हूँ ।
सुधा सिंह 'व्याघ्र'



मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

दुधमुँहा बचपन

 
क्या कहने
उस मासूमियत के
जो किसी वयस्क की चप्पलें
उल्टे पैरों में पहने
चली आई थी मेरे दरवाजे पर,
पाँवों को उचकाकर
धीरे धीरे अपने
कोमल हाथों से
कुंडी खटखटा रही थी
खोलकर दरवाजा
जब मैंने
उस नन्ही परी को देखा
तो सहसा चेहरे पर
मुस्कान ने दस्तक दे दी
उसे घर के भीतर बुला लूँ
यही सोच
मैंने उसकी ओर
बढ़ाया ही था अपना हाथ
कि छन छन करती
नन्हीं बुलबुल
अपने नन्हें कदमों से
अपने घर की तरफ दौड़ चली।
नन्हें पाँवों में छन -छन
करती पाजेब
और मासूम किलकारियाँ
अलौकिकता का अहसास लिए
पूरे वातावरण को गुँजा गईं
और मैं
घर की दहलीज पर खड़ी
उस दुधमुँहे बचपन में कहीं खो गई।


सुधा सिंह व्याघ्र





बस यूँ ही... फोन और मैं

बस यूँ ही...फोन और मैं।

बस, कई बार यूँ ही.. 
समय बर्बाद करती
पाई गई हूँ मैं
मेरे ही द्वारा।
कभी मुखपोथी पर
कभी व्हाट्सएप के 
अनेकों समूहों पर।
जब -तब नोटिफिकेशन
का स्वर उभर कर
मुझे खींचता है अपनी ओर
और मैं ...
मैं बहुत आवश्यक
काम छोड़कर
पहले फ़ोन उठाने
लपकती हूँ
कि कहीं किसी को
बहुत ज़रूरी कार्य न हो
कहीं कोई किसी मुश्किल में
न फँसा हो
रात को भी फ़ोन 
बंद नहीं करती 
बस यही सोचकर।
मैं क्यों स्वयं को
इतना महत्व देने लगी हूँ
कि वे अपनी परेशानियों में 
मुझे याद करेंगे और मैं 
उनके किसी काम आ सकूँगी।
सभी तो समझदार हैं 
फिर भी मैं.. 
बस यूँ ही ...
मैं अक्सर फोन पर
समय बरबाद करती 
पाई जाती हूँ मेरे ही द्वारा।

 सुधा सिंह


सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

बिखरे पत्ते....




जमीन पर बिखरे ये खुश्क पत्ते
गवाह हैं..
शायद कोई आंधी आई थी
या खुद ही दरख्तों ने
बेमौसम झाड़ दिया उन्हें
जो निरर्थक थे,
कौन रखता है उनको
जो बेकार हो जाते हैं
किसी काम के नहीं रहते!
मुर्दों से जल्द से जल्द
छुटकारा पा लेना ही तो नियम है,
शाश्वत नियम...
और यही समझदारी भी।
तो क्या हुआ,
जो कभी शान से इतराते थे,
और अपने स्थान पर सुशोभित थे
वो आज धूल फांक रहे हैं।
और बिखर- बिखरकर
तलाश रहे हैं
अस्तित्व अपना - अपना!!!!!!

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

ऐ बचपन....


ऐ बचपन....

अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे
घुट रही साँस मेरी , फिर से जिला दे मुझे

हारी हूँ जिंदगी की मैं हर ठौर में
लौट जाऊँ मैं फिर से उसी दौर में
ऐसी जादू की झप्पी दिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

जाना चाहूँ मैं जीवन के उस काल में
झुलूँ डालों पर, कुदूँ मैं फिर ताल में
मेरे स्वप्नों का फिर से किला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

गुड्डे गुड़िया की शादी में जाना है फिर
सखियों से रूठकर के मनाना है फिर
फिर से बचपन की घुट्टी पिला दे मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

फ्रॉक में नन्हीं कलियों को फिर से भरूँ
तितली के पीछे फिर से मैं उड़ती फिरूँ
वही खुशहाल जीवन दिला दो मुझे
अपनी उंगली ऐ बचपन पकड़ा दे मुझे

सुधा सिंह
®©सर्वाधिकार सुरक्षित