गुरुवार, 3 जनवरी 2019

नव वर्ष



अलविदा 2018

तूने अपने हर पहलू से मुझे रूबरू कराया
कभी हंसाया, तो कभी जार - जार रुलाया
अपने और परायों में भेद भी बतलाया
तुझे भूलना मुमकिन तो नहीं पर
तुझे जाने से कोई रोक भी नहीं सकता.

अलविदा 2018

..... ...... . 

नव वर्ष 
नव वर्ष तुम्हारे स्वागत में
हैं पालक पावड़े बिछे हुए
नव आशा, नव अभिलाषा में
राहों में पुष्प हैं खिले हुए।
रश्मि राथी का हाथ थाम
तुम पास हमारे आ जाओ
भर लो अपने आलिंगन में
ज्वाला नव प्रेम की सुलगाओ।।

Happy New year 2019

31.12.2018 सुधा सिंह 

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र,
क्यों तुझे शर्म नहीं आई?
घर की आबरू से जब
सारेआम खिलवाड़ हो रहा था..
जब तथाकथित अपने ही
अपनों को दांव पर लगा रहे थे.. "
तो तू मौन खड़ा
उस अत्याचारी दुर्योधन
का साथ क्यों देता रहा?
क्यों तूने यह नहीं समझा...
कि इतिहास में तेरा नाम
काले अक्षरों में
अंकित किया जाएगा..
माना कि तू विकलांग था
तू असहाय था पर
बुद्धि तो काम कर रही थी न!!!!
फिर क्यों????
क्यों पुत्रमोह में तूने अपनी
समझदारी को भी उसके चरणों में
समर्पित कर दिया था.

महाभारत कभी न होती, धृतराष्ट्र!!!!
अगर तू न होता..
होता अगर सही तू,
तो सुयोधन
कभी दुर्योधन न बनता....
तेरे कर्मों की सजा 
दुर्योधन न भुगतता....
महाभारत का असली गुनाहगार
दुर्योधन नहीं, तू है...
तेरा लालच, तेरी अधिकार लिप्सा
और तेरा पुत्र मोह है....
दुर्योधन तो बेचारा है
जो सदियों से
तेरे कर्मों की सजा भुगत रहा है.....
तू कालिख है, भारतवर्ष का
तू कलंक है, आर्यावर्त का.
इतिहास तुझे कभी क्षमा नहीं करेगा.....
ओ धृतराष्ट्र....

सुधा सिंह ©®

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

रात की थाली.( लघुकथा)

रात की थाली

बीस वर्षीया रागिनी को नहीं पता था कि सिंक में रखी वह एक थाली उसके ऊपर इतनी भारी पड़ेगी। 
भोजन समाप्त होने के पश्चात रागिनी, विकास, और उनका बेटा आरव जाने कब के सो चुके थे। तभी अचानक से कमरे के दरवाजे पर जोर - जोर से ठक - ठक हुई। इस ठक- ठक से सबकी नींद उचट गई।  दो वर्ष का मासूम आरव भी नींद टूट जाने के कारण रोने लगा था। घड़ी में तकरीबन ढाई बजे रहे थे। आँखों को मीचते हुए विकास ने दरवाजा खोला तो पाया कि पिताजी भन्नाए स्वर में शराब के नशे में जोर- जोर से चिल्ला रहे थे - "कहाँ है रागिनी, उठाओ उसे। समझ में नहीं आता उसे, रात में जूठे बर्तन सिंक में नहीं छोड़ते। रसोई जूठी हो तो देवी- देवता नाराज हो जाते हैं।"

रात को 11 से 12 बजे के दरमियान सबको खाना खिलाकर रागिनी ने एक थाली में अपने लिए भोजन निकाल कर रख दिया था कि बाद में खा लेगी।

बहू होने के नाते वह सबके साथ नहीं खा सकती थी। मजबूरीवश विकास को भी घरवालों के साथ ही खाना पड़ता था। विवाह के बाद विकास को भी कई बार ताने सुनने पड़े थे कि रागिनी के आने के बाद अधिक से अधिक समय उसके साथ ही बिताता है। उसके साथ ही खाना भी खाने लगा है।  हम अब अच्छा नहीं लगते आदि आदि ।

इन तानों से बचने के लिए ही उसने भी रागिनी के साथ भोजन करना छोड़ दिया था। अब रागिनी को रसोई में बैठकर अकेले ही भोजन करने की आदत हो गई थी । भोजन करना भी मात्र उसके लिए एक ड्यूटी बन कर रह गया था । घर के अन्य कार्यों की तरह वह भी एक ऐसा ही कार्य था जिसके बगैर नहीं चल सकता था। 

आज भी उसने यही सोचा था कि रसोई के सारे काम निबट जाने के बाद वह भी खाना खाकर सो जाएगी।
सास- ससुर को छोड़ कर घर के सभी सदस्य सो चुके थे परंतु ससुर जी शराब के नशे में धुत होकर अपने कमरे में रोज की तरह बडबड़ा रहे थे। 

ससुराल में नियम था कि रात में जूठे बर्तन रसोई में नहीं होने चाहिए, गैस चूल्हे को साफ करके ही सोना है।
काम समाप्त होते - होते रोज की तरह रात के एक बज चुके थे।जैसे तैसे उसने अपना भोजन भी ख़त्म किया। पर उस रात्रि वह बहुत अधिक थकावट महसूस कर रही थी इसलिए उसने सोचा कि बस एक थाली ही तो है। क्या फर्क पड़ता है। सुबह उठते ही साफ कर लेगी। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। यही सब विचार कर के वह भी सोने चली गई।पर शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इस दौरान ससुर जी न जाने किस काम से  रसोई घर में आये।सिंक में पड़ी उस जूठी थाली पर उनकी नजर पड़ गई।फिर क्या था, उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। गालियाँ बकते - बकते रागिनी से उन्होंने उसी समय वह थाली धुलवाई और तमतमाते हुए अपने कमरे की ओर चले दिए।रागिनी की आँख से भर - भर आँसू बहते रहे।सास और पति चुपचाप खड़े यह सब देखते रह गए।
सुधा सिंह 🖋 

शनिवार, 24 नवंबर 2018

जी चाहता है...



जी चाहता है.. 
फिर से जी लूँ

उन लम्हों को
बने थे साखी 
जो हमारे पवित्र प्रेम के,
गुजर गए जो 
बरसों पहले ,
कर लूँ जीवंत उन्हें ,
फिर एक बार ....
जी चाहता है 

अलौकिकता से 

परिपूर्ण वो क्षण 
जब दो अजनबी 
बंध गए थे
प्रेम पाश में... 
ऐहिक पीड़ाओं से 
अनभिज्ञ, 
हुए थे सराबोर 
ईश्वरीय सुख की 
अनुभूतियों से! 
एक स्वप्निले भव का
अभिन्न अंग बन 
आसक्त हो, 
प्रेम के रसपान से मुग्ध, 
दिव्यता से आलोकित 
प्रकाश पुंज का वह बिखराव.. 
मेरे चित्त को 
दैहिक बन्धनो से 
मुक्त करने को 
लालयित थे जो 
उस अबाध प्रवाह में 
बहने को 
आतुर थे हम 
कर लूँ 
उन क्षणों को 
फिर से आत्मसात 
जी चाहता है

पूर्णतया तुम में ही 
डूब जाने की बेकरारी, 
इस संसार को भुलाने को 
विवश करती,
तुम्हारी वह कर्णप्रिय
प्रेम पगी वाणी. 
फिर से जी लूँ 
वो पलछीन
जी चाहता है... 





 
 

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

कुछ द्वीपदियाँ

कुछ द्वीपदियाँ

1 : फितरत

छीन लूँ हक किसी का,
 ऐसी फितरत नहीं.
आईना जब भी देखा,
 खुशी ही हुई.**

2: नियति

नियत तो अच्छी थी,
पर नियति की नीयत बिगड़ गई *
जीवन के थपेड़े खाते- खाते
वह महलों से वृद्धाश्रम पहुंच गई *

3: इंसानियत

बाजार सज गए हैं...
चलो इंसानियत खरीद लाएँ ***

4: सामंजस्य
सामंजस्य नहीं था बिल्कुल
फिर भी जिन्दगी काट दी **
यह सोचकर कि
दुनिया क्या कहेगी.....**

5: जिन्दगी

कैसे कह दूँ कि जिन्दगी
कठिन से सरल हो गई है.
वक्त का असर तो देखो यारों...
अब तो 'सुधा' भी गरल हो गई है...