बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

बुलबुला पानी का






 मेरे ख्वाबों का वो  जहान
प्रतिदिन प्रतिपल टूटता है, फूटता है
और फिर बिखर जाता है ...
हो जाता है विलीन
एक अनंत में
एक असीम में...
तुच्छता, अनवस्था,
व्यर्थता का एहसास लिए ...
खोजना चाहता है
अपने अस्तित्व को..
पर सारे प्रयास, सारे जतन
हो जाते हैं नाकाम
तब... जब अगले ही पल में
अचानक से परिलक्षित
होने लगता है वही बदरंग परिदृश्य..
और शुरू हो जाती है
जद्दोजहद ख़ुद को पाने की
खुद को तलाशने की
और तलाश के उस दौर में
अंततः भीड़ का हिस्सा
बनकर रह जाने की अवस्था में ..
जैसे कोई बुलबुला पानी का
सतरंगी आभा का वह गोल घेरा....
जो एक पल सम्पूर्णता का एहसास कराता है
और फिर दूसरे ही पल,
 फूटते ही फैल जाती है शून्यता.....

सुधा सिंह 🦋 

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

एक और सियासत




कासगंज की धरती की
उस रोज रूह तक काँप गई
शोणित हो गई और तड़पी वह
फिर एक सपूत की जान गई

मक्कारी के चूल्हे में
वे रक्तिम रोटी सेंक गए
वोट बैंक की राजनीति में
खेल सियासी खेल गए

था कितना भयावह वह मंजर
माँ ने एक लाल को खोया था
उस शहीद के पावन शव पर
आसमान भी रोया था

भारत माँ के जयकारों पर
ही उसको गोली मारी है
सत्तावादी, फिरकापरस्त
ये केवल एक बीमारी हैं

कुर्बान हुआ फिर एक चंदन
कुछ बनवीरों के हाथों से
क्या लौटेगा फिर वह सपूत
इन गलबाजों की बातों से

ओढ़ मुखौटा खूंखार भेड़िये
क्यों मीठा बोला करते हैं?
क्यों सांप्रदायिकता का जहर
परिवेश में घोला करते हैं?

करते उससे ही गद्दारी
जिसकी थाली में खाते वो
जिसे माँ भारती ने पोसा
क्यों नर भक्षी बन बैठे वो?



सुधा सिंह 🦋 

आसमान :बालगीत




आसमान है सबसे ऊँचा ,
फिर भी उसे धरा से प्यार।
धरती से मिलने की खातिर ,
करता है वह क्षितिज तैयार।।

कितना उन्नत, विशाल कितना,
लेकिन  कोई दंभ नहीं है!
फिर भी सब नतमस्तक हो जाते,
इसमें कोई अचंभ नहीं है!

पहन कभी नीला परिधान,
रहता खड़ा है सीना तान!
रंग सुनहरा तब ये पहने,
जब् होती है शाम विहान।

एक समान प्यारे सब उसको,
किसी से कोई बैर नहीं है!
छात्र छाया है सबकी उसपर,
कोई भी तो गैर नहीं है!

कितने नखत गोद में उसकी,
जान न् कोई अब तक पाया,
जाने कितने राज़ छुपे हैं,
इसकी कोई थाह न् पाया।

सबको एक समान आँकता,
बैठके ऊपर सदा ताकता!
प्रयास कोई भरसक करता,
फिर भी उससे कुछ नहीं छुपता!

तारों से टिमटिम करवाता,
चंदा को है रात में लाता!
दूर भगाने अंधियारे को,
दिन में दिनकर को ले आता !

बादल उसकी बात मानते,
बोले जब वह तभी बरसते,
बिजली भी  है कायल उसकी ,
जब वह कहता तभी कड़कती

सुधा सिंह 🦋

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

कुलदीपक




कितना अच्छा है
कि मैं लड़का नहीं हूँ.

भले ही मेरे पापा,
मेरे भाई से
सबसे अधिक प्यार करते हैं
और हमें बोझ समझते हैं .
भले ही उनका सारा लाड - प्यार
सिर्फ उसे ही मिलता है .
और वह पापा से बिलकुल नहीं डरता
उसे बताया गया है कि
वह उनके कुल का दीपक है.
उसे गर्व है इस बात का.

उसकी गलती पर जब माँ,
उसे डाँटती है तो वह पापा से
उनकी शिकायत करता है.
उसकी हर जिद पूरी होती है.
घर में सिर्फ उसकी ही तो चलती है.
वह जो  कुछ चाहता है
उसे झट से मिल जाता है.
उसकी सभी उचित- अनुचित
मांगें पूरी हो जाती हैं.
बाइक, कार सबकी चाबियां
उसी के पास तो होतीं हैं.

अगर मम्मी या दीदी
उसे किसी बात पर
रोकती - टोकती हैं तो
वह उनको पापा की
डाँट खिलवाता है.
वह फ़ेल होता है तब भी,
उसे प्यार से समझाया जाता है.

उसे समझाया जाता है कि...
"उनकी सारी जायदाद
उसकी ही तो है फिर भी
थोडी - बहुत पढ़ाई
उसे कर ही लेनी चाहिए.
बहनें तो एक- न - एक दिन
अपने ससुराल चली जाएँगी."
यह सुनते ही
उसकी खुशी का
कोई ठिकाना नहीं होता है.
बचपन से लेकर बड़े होने तक
बार - बार और न जाने
कितनी ही बार तो
उसके कानों ने यह सुना था.
पर
बहुत अच्छा है कि
मैं लड़का नहीं हूँ.
मैं उस जैसा लड़का
नहीं बनना चाहती.
वह जब चाहे रुपए
जुए में उड़ा देता है.
अच्छा है कि मैं लड़की हूँ
अपने पिता की कमाई
जुए में उड़ाने का विचार
मेरे मन में कदापि नहीं आता.
मैं उसकी तरह घर में
शराब पीकर नहीं आ सकती.
वह कभी- कभार
माँ के साथ- साथ पापा को भी
गालियाँ बक देता है.
उन्हें बुरा - भला कहता है.
उन्हें नीचा दिखाने में
कोई कसर नहीं छोड़ता
पर मैं ऐसा न कर पाती. .

उसके बिगड़ने का दोष
माँ पर ही तो लगता है सदा
अगर मैं लड़का होती
तो कतई नहीं चाहती कि
मेरे बिगड़ने का इल्जाम
मेरी माँ पर आए.
अच्छा है कि मैं लड़का
नहीं हूँ क्योंकि
पापा कि डाँट
जब माँ को मिलती है
तो उसे बहुत मजा आता है.
मुझे बिलकुल न अच्छा लगता
कि मेरी गलती की सजा
मेरी माँ को मिले.

ख़ुश हूँ मैं कि
मैं लड़का नहीं हूँ.
अच्छा है कि मैं
अपने पापा के कुल का
दीपक नहीं हूँ.
नहीं बनना मुझे
ऐसा कुलदीपक
जो अपनी घृणित मानसिकता
के चलते अपने ही
घर में आग लगा दे.
अपने आगे किसी को
कुछ न समझे
छोटे - बड़े का लिहाज भूल जाए.

अच्छा है कि लड़की हूँ मैं .
मुझपर कुछ पाबंदियां हैं.
शायद इसलिए
मुझे अपनी सीमाएँ पता है
जिन्हे मैंने कभी नहीं लांघा.
अपने दायरे में रहकर
जीने की कला सीखी पर.......

दुख होता है कि...
माँ डरती है
अपनी ही कोख की औलाद से
और तो और अब पापा भी
डरने लगे हैं उससे.





शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

इंद्रधनुष




नीला अंबर नाच उठा है
पाकर इंद्र के चाप की रेख
छन छन अमृत बरस रहा है
रति मदन का प्रणय देख

सात रंग के आभूषण से
हुआ अलंकृत आज जहान
खिल उठा रुप क्षितिज का
पहन के सतरंगी परिधान

पुलकित हो गई धरा हमारी
मन भी हो रहे बेकाबू
मेघ ले रहे अंगड़ाई
सृष्टि का ये कैसा जादू..

नाचे मोर पंख फैलाए
महक उठी बगिया फुलवारी
वसुधा रोम रोम मुस्काए
जाए इंद्रधनुष पर वारी                                                                                                 इंतजार
लाल नारंगी हरा जामुनी
नीला पीला और बैंगनी
इन रंगों के संगम से
जीवन में आती सुंदरता
विविध भावों के जंगम से

जी उठते निर्जीव भी
आती अधरों पर मुस्कान
इंद्रधनुष की छटा देखके
चहके बालक,वृध्द,जवान

सुधा सिंह 🦋