मेरे ख्वाबों का वो जहान
प्रतिदिन प्रतिपल टूटता है, फूटता है
और फिर बिखर जाता है ...
हो जाता है विलीन
एक अनंत में
एक असीम में...
तुच्छता, अनवस्था,
व्यर्थता का एहसास लिए ...
खोजना चाहता है
अपने अस्तित्व को..
पर सारे प्रयास, सारे जतन
हो जाते हैं नाकाम
तब... जब अगले ही पल में
अचानक से परिलक्षित
होने लगता है वही बदरंग परिदृश्य..
और शुरू हो जाती है
जद्दोजहद ख़ुद को पाने की
खुद को तलाशने की
और तलाश के उस दौर में
अंततः भीड़ का हिस्सा
बनकर रह जाने की अवस्था में ..
जैसे कोई बुलबुला पानी का
सतरंगी आभा का वह गोल घेरा....
जो एक पल सम्पूर्णता का एहसास कराता है
और फिर दूसरे ही पल,
फूटते ही फैल जाती है शून्यता.....
सुधा सिंह 🦋
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