नवगीत :1 चंचल तितली
मतवाली वह छैल छबीली
लगती ज्यों हीरे की कनी।
डोले इत उत पुरवाई सम
राहें वह भूली अपनी ।
चंचल चितवन रमणी बाला
स्वप्न स्वर्णिम उर सजाती
दर्पण में छवि निरख - निरख के
खूब लजाती इठलाती
ओढ़े गोरी पीत चुनरियाँ
प्रीत रंग में आज सनी
उपवन खेतों खलिहानों में
हिरनी सी वो डग भरती
गौर गुलाबी सी अनुरक्ता
मन ही मन प्रिय को वरती
रानी वह तो रूप लवण की
रहती हरपल बनी ठनी ।
यौवन की देहरी छूकर जब
कलियों ने ली अँगड़ाई
धरा मिलन को तरसे बादल
उमड़ घुमड़ बरखा आई
बहकी बहकी चंचल तितली
आकर्षण का केंद्र बनी