शनिवार, 3 अप्रैल 2021

चंचल तितली

 नवगीत :1 चंचल तितली 


मतवाली वह छैल छबीली   

लगती ज्यों हीरे की कनी।

डोले इत उत पुरवाई सम

राहें वह भूली अपनी । 



चंचल चितवन रमणी बाला

स्वप्न स्वर्णिम उर सजाती

दर्पण में छवि निरख - निरख के

खूब लजाती इठलाती

ओढ़े गोरी पीत चुनरियाँ 

प्रीत रंग में आज सनी 


उपवन खेतों खलिहानों में 

हिरनी सी वो डग भरती

गौर गुलाबी सी अनुरक्ता

मन ही मन प्रिय को वरती

रानी वह तो रूप लवण की

रहती हरपल बनी ठनी ।


यौवन की देहरी छूकर जब

कलियों ने ली अँगड़ाई

धरा मिलन को तरसे बादल 

उमड़ घुमड़ बरखा आई 

बहकी बहकी चंचल तितली 

आकर्षण का केंद्र बनी 





सोमवार, 29 मार्च 2021

मौन चिल्लाने लगा...

 मौन चिल्लाने लगा...... (नवगीत) 



कौन किसका मित्र है और, 

कौन है किसका सगा। 

वक़्त ने करवट जो बदली, 

मौन चिल्लाने लगा।


बाढ़ आई अश्रुओं की, 

लालसा के शव बहे। 

काल क्रंदन कर रहा है, 

स्वप्न अंतस के ढहे ।। 

है कहाँ सम्बंध व‍ह जो, 

प्रेम रस से हो पगा ।


द्वेष के है मेह छाए, 

तिमिर तांडव कर रहा ।

जाल छल ने भी बिछाया, 

नेह सिसकी भर रहा।। 

है पड़ा आँधी का चाबुक, 

आस भी देती दगा। 


कंटकों की है दिवाली, 

फूल तरुवर से झरे। 

पीर ने उत्सव मनाया, 

सुख हुए अतिशय परे।। 

काल कवलित हुआ सवेरा, 

तमस का सूरज उगा। 






 

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मृत


दफ़्न हूँ जहाँ

वहीं जी भी रही हूँ, 

इन दीवारों के 

आगे का जहां 

बस उनके लिए है।


मृत हैं ये दीवारें

या मैं ही मृत हूँ

वो हिलती नहीं 

और स्थावर मैं

जिसे रेंगना मना है। 

रविवार, 6 दिसंबर 2020

तुम कहाँ हो भद्र???

 तुम कहाँ हो भद्र??? 


उस दिन मन निकालकर

कोरे काग़ज़ पर

बड़ी सुघड़ता से रख दिया था मैंने।

सोचा था किसी दृष्टि पड़ेगी तो

अवश्य ही मेरे मन की ओर

आकर्षित हो व‍ह भद्र

उसे यथोपचार देकर

अपने स्नेह धर्म का

निर्वहन करेगा।

पल बीते, क्षण बीते,

बीती घड़ियाँ और साल।

मन बाट जोहता रहा किन्तु

भद्र के पद चिह्न भी लक्षित नहीं हुए ।

(भद्र यथा संभव काल्पनिक पात्र है।)

मन पर धूल की परत चढ़ती रही

और मन अब अत्यंत मलिन,

कठोर और कलुषित हो चुका है।


#@sudha singh

रविवार, 1 नवंबर 2020

जी करता है... नवगीत

 


जी करता है बनकर तितली 

उच्च गगन में उड़ जाऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ 


दूषित जग की हवा हुई है 

विष ने पाँव पसारे हैं 

अँधियारे की काली छाया 

घर को सुबह बुहारे है 


तमस रात्रि को सह न सकूँ अब 

उजियारे से मिल आऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ 


अपने मग के अवरोधों को

ठोकर मार गिराऊँगी

शक्ति शालिनी दुर्गा हूँ मैं 

चंडी भी बन जाऊँगी 


इसकी उसकी बात सुनूँ ना

मस्ती में बहती जाऊँ 

बादल को कालीन बना कर 

सैर चांद की कर आऊँ