शनिवार, 4 अप्रैल 2020

संध्या की बेला

नवगीत 
मापनी:16,14

बीते मेरे दिवस सुनहरे 
संध्या की बेला आई 
दिन भी क्या दिन थे वे मेरे 
कली कली थी मुसकाई 

1:
रिमझिम रिमझिम बरसातें भी 
माँ सम लोरी गाती थी 
सूरज की गरमी भी तन में 
जोश नया भर जाती थी 
संघर्षों की काली बदली 
मन को डिगा नहीं पाई 

बीते मेरे दिवस सुनहरे 
संध्या की बेला आई 

2:
उसकी मीठी मीठी  बोली 
मिसरी सी घुल जाती थी 
उसके पायल की रुनझुन भी 
दिल घायल कर जाती थी 
सपनों की रानी वो मेरे 
ढूँढू उसकी परछाईं 

बीते मेरे दिवस सुनहरे 
संध्या की बेला आई 

3  :
श्रांत शिथिल बैठा हूँ मैं 
पढ़ता हूँ उसकी पाती 
पथ मैं उसका रोज निहारूँ 
ओह! व‍ह फिर लौट आती 
जीवन की वो साथी मेरी 
कभी नहीं व‍ह घबराई 

बीते मेरे दिवस सुनहरे 
संध्या की बेला आई 

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

तुझे माना खुदा अपना

गीत 
 मापनी 14, 15


तुझे माना खुदा अपना 
तू ही मेरा सितारा है 
बिना तेरे नहीं जीना  
मेरे दिल ने पुकारा है 

1:
तुझे चाहा तुझे पूजा 
तेरी ख्वाहिश सदा की है 
तेरे ही वास्ते मैंने 
सदा रुसवाईयां ली हैं
फँसी है नाव तूफ़ाँ में 
तू ही मेरा किनारा है 

2:
नहीं तुझसे जुदा होना 
मेरे दिल ने यही ठाना 
कभी मत छोड़ कर जाना 
मैंने सबकुछ तुझे माना 
मिरी खातिर ज़मीं पर ही 
खुदा ने तुझे उतारा है 

3:
अब तलक तो हम अकेली 
राहों में ही भटकते थे 
आँसुओं की बारिशों में 
सदा ही भीगा करते थे 
कि इस जालिम जमाने से 
इश्क़ हरदम ही हारा है 













बुधवार, 1 अप्रैल 2020

प्रभु राम :कुंडलियाँ

 कुंडलियाँ :30

सुख की गागर वे भरे,भरें वही भंडार।
राम नाम जपते रहो, राम करें उद्धार।।
राम करें उद्धार, जानकी वल्लभ मेरे।
दशरथ सुत सुख धाम,मिटाएँ कष्ट घनेरे।।
कहे सुधा जप नाम,छाए न बदरी दुख की
कर दें बेड़ा पार, पयोधि राम हैं सुख की। 

ठहराव


जरूरी है ठहराव भी ..
ऐ दोस्त थोड़ा ठहर जाया करो..

सबसे इतनी नाराजगी क्यों है
मानव सेवा भी तो बंदगी है
मानवता में सिर झुकाया करो
केवल मंदिर मस्जिद ही न जाया करो

ऐ दोस्त...
माना कि चलना जरूरी है
फिर भागने की क्यों होड़ लगी है
संघर्षों का नाम ही जिंदगी है
जिन्दगी को झुठलाया न करो

ऐ दोस्त...
ये छिन कभी रुकते नहीं
जो अकड़ते हैं झुकते नहीं
जरूरी है हर मुद्रा अच्छी सेहत के लिए
कभी पीछे भी मुड़ जाया करो


ऐ दोस्त... 
थोड़ा रुको, थोड़ा सम्भलो,
चैन की थोड़ी साँस भी ले लो
खूबसूरत है जिन्दगी, एहसास तो लेलो
यूँ मन ही मन बुदबुदाया न करो

ऐ दोस्त...

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

हल ढूँढते हैं...

हल ढूँढते हैं :

आओ मिलजुल के हम कोई हल ढूँढते हैं।
चलो साथी कुछ अच्छे पल ढूँढते हैं ।

गिरवी हैं बड़े अर्से से ईमान जिनके मंडी में
हर बशर में आदमीयत वो आजकल ढूँढते हैं ।

जिस समंदर ने रगड़ा है घावों पर नमक
उसी समंदर में चलो मीठा जल ढूँढते हैं।

रंज - ओ - ग़म की न हों कोई परछाईयाँ
चलो साथी ख्वाबों का स्थल ढूँढते हैं।

बाजार नफ़रतों का बहुत गर्म है आजकल
कर सके उसे ठंडा वो नल ढूँढ़ते हैं।

उन नकाबपोशों ने मुझे लूटा है बहुत बार
जो न ओढ़े कोई नक़ाब वह शकल (शक्ल) ढूँढते हैं।

इन्तहा हो गई है अब मेरे सब्र की भी यारों
आज आओ उस सब्र का भी फल ढूँढते हैं।