किस ओर का रुख करूँ, जाऊँ किस ओर
मंजिल बड़ी ही दूर जान पड़ती है।
मंजिल बड़ी ही दूर जान पड़ती है।
मन आज बड़ा ही विकल है, अकुलाहट का घेरा है
हवा भी आज न जाने क्यूँ ,बेहद मंद जान पड़ती है!
हवा भी आज न जाने क्यूँ ,बेहद मंद जान पड़ती है!
मेरे इर्द -गिर्द जो तस्वीरें हैं दर्द की,
ये आसमानी सितारों की साज़िश जान पड़ती है।
ये आसमानी सितारों की साज़िश जान पड़ती है।
दूर तक पसरी हुई ये वीरानी,ये तन्हाईयाँ
सिर पर औंधी शमशीर जान पड़ती है।
सिर पर औंधी शमशीर जान पड़ती है।
आकाश भी आज साफ़ नजर नहीं आता,
मेरी किस्मत पे छायी ~धुंध जान पड़ती है।
मेरी किस्मत पे छायी ~धुंध जान पड़ती है।
यहाँ घेरा ,वहाँ घेरा,
हर ओर मकड़ जाल जान पड़ता है।
हर ओर मकड़ जाल जान पड़ता है।
थम रही हैं सांसे,बदन पड़ रहा शिथिल,
मुझे ये मेरा आखिरी सफ़र जान पड़ता है।
मुझे ये मेरा आखिरी सफ़र जान पड़ता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
पाठक की टिप्पणियाँ किसी भी रचनाकार के लिए पोषक तत्व के समान होती हैं ।अतः आपसे अनुरोध है कि अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन करें।☝️👇