शनिवार, 12 जनवरी 2019

मेघना शिर्के..... (कहानी )



मेघना शिर्के .....

(कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। ")


गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म हो गई थी।विद्यालय का पहला दिन था। सभी बच्चों में एक नया उत्साह, नया जोश नजर आ रहा था। एक दूसरे से बहुत दिन बाद मिले थे तो बातें करने में मशगूल थे। चहल पहल इतनी बढ़ गई थी मानो स्कूल की खामोश दीवारें भी बोलने लगी थी।

घंटी बजते ही कक्षा अध्यापिका रेवती ने अपनी कक्षा में प्रवेश किया। हाजिरी लेने लगी तो  उसे पता चला कि मेघना शिर्के आज विद्यालय नहीं आई है। मन में आया कि शायद वह छुट्टी से अभी तक लौटी नहीं होगी, एक दो दिन में तो आ ही जाएगी। इहेतुक कक्षा के बाकी विद्यार्थियों से पूछने की आवश्यकता भी उसे महसूस नहीं हुई।

तीन दिन के बाद जब चपरासी कक्षाध्यापिका होने के नाते रेवती के हस्ताक्षर लेने आया तब उसे ज्ञात हुआ कि उसने तो विद्यालय में लीविंग सर्टिफिकेट के लिए अर्जी दे दी है।

रेवती हतप्रभ थी । हस्ताक्षर तो उसने कर दिए पर बार - बार यह सवाल उसके दिमाग में तीर की तरह चुभ रहा था कि मेघना विद्यालय क्यों छोड़ना चाहती है? आखि़र ऐसी क्या बात हो गई?

रेवती की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी इसलिए उसने उसकी ही कक्षा की सबसे करीबी सहेली मान्या से पूछताछ की। मान्या ने सारा माजरा खुल कर बता दिया। रेवती भीतर ही भीतर दहल गई।
ग्यारह साल की मासूम बच्ची जो सदैव मुस्कुराती रहती थी, कोई नहीं जानता था कि उसके हृदय में दर्द के कितने फफोले पड़े थे। इस उम्र में इतना सब कुछ देख लेना फिर भी चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आने देना, बिलकुल मामूली नहीं था।

गेहुंंआ रंग, पतली- दुबली काया वाली मेघना, हर टीचर की चहेती और और कक्षा की सबसे मेधावी छात्र थी । हर साल अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थी। पढ़ाई- लिखाई, खेल - कूद सबमें अव्वल।
यहाँ तक कि विद्यालय में उसे जो भी काम दिया जाता समय से पूर्व ख़त्म करके दिखा देती। यही कारण था कि कई बच्चे उसे टीचरों की 'चमची' कहकर चिढ़ाते थे। कहते , "मेघू, थोड़ा कम बटर लगाया कर। " पर इन सबसे मेघना को कोई फर्क न पड़ता। बस कभी- कभार मुंह गिराकर उदासी भरे स्वर में शिकायत करती - "मैम देखिए न, ये सब मुझे 'चमची' कहकर चिढ़ाते हैं। " और टीचर बच्चों को फटकार लगाते - " बच्चों, ऐसा नहीं कहते किसी को। तुम्हें यदि कोई ऐसी बातें कहे तो तुम्हें बुरा लगेगा न। " चलो, माफी माँगो मेघना से। " माफी मांगते ही मेघना अविलंब उस सहपाठी को माफ कर देती। मानो कभी कुछ हुआ ही न हो। कभी किसी की बात का बुरा न मानना उसकी फितरत थी। बिल्कुल ओस की बूँदों की भांति पवित्र और निर्मल हृदय था उसका।
रेवती को भी मेघना का व्यवहार बहुत भाता था। यूँ कह लीजिए जैसे" सर्वगुण सम्पन्न" नामक विशेषण का आविर्भाव मेघना के लिए ही हुआ था। ऐसा विद्यार्थी पाकर तो हर शिक्षक स्वयं को धन्य समझता है।

स्टाफरूम में जब- जब उसकी बात निकलती तो रेवती यह कहने से कभी न चूकती कि काश मेघना मेरी बेटी होती। यह कहते ही उसके चेहरे की कांति और बढ़ जाती।
   तकरीबन एक महीने के बाद कुछ औपचारिकता पूरी करने के लिए मेघना स्कूल आई तो रेवती से भी मिली। रेवती उसके जख्मों को कुरेदना नहीं चाहती थी फिर भी जब नहीं रहा गया तो उसने झिझकते हुए पूछ ही लिया। मेघना शायद रेवती के इस प्रश्न का ही इंतजार कर रही थी। मेघना भली - भाँति जानती थी कि रेवती मैम को मान्या ने सब कुछ बता दिया है। इसलिए अब छुपाने का कुछ अर्थ नहीं रह जाता।
    मेघना के माता - पिता यामिनी और राजेश ने प्रेमविवाह किया था। यामिनी राजस्थानी थी और पिता महाराष्ट्रीयन परिवार से संबंध रखते थे। घरवालों के राजी न होने के बावजूद दोनों ने शादी कर ली थी। इस वजह से यामिनी के माता- पिता ने हमेशा के लिए उससे अपना संबंध - विच्छेद कर लिया था। कई प्रयासों के बाद भी यामिनी उन्हें मनाने में असफल रही थी।
शादी के कुछ महीनों तक सब कुछ ठीक- ठाक चला पर धीरे - धीरे दोनों के बीच दरार आने लगी और इन दूरियों का कारण बने सास - ससुर, देवर - देवरानी और दहेज।
      राजेश का प्यार भी मात्र एक आकर्षण था जो कुछ ही महीनों में काफूर हो गया। वह भी अब घरवालों का ही साथ देने लगा था। आए दिन दहेज न लाने के लिए यामिनी को प्रताड़ित किया जाने लगा था। रोज़ - रोज़ ताने सुन- सुनकर उसके कान पक जाया करते। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि माँ बाप की बातों में आकर राजेश ने यामिनी पर हाथ उठाना भी शुरू कर दिया था।
 देवरानी को भी उसकी शादी में अच्छा- खासा दहेज मिला था, सो कोई न कोई बहाना बनाकर देवर भी उसे ताना मारता था। देवरानी भी अपनी शान बघारने से पीछे न हटती। यामिनी ने घर के सभी सदस्यों के साथ सामंजस्य बिठाने की हर संभव कोशिश की परंतु उसकी हर कोशिश बेकार रही। प्रतिदिन की मार - पिटाई, झगड़ा, कलह उसके लिए असहनीय हो चला था पर यामिनी के पास उस घर में रहने के अलावा कोई और चारा भी तो न था।
इसी बीच मेघना का भी जन्म हुआ परंतु क्लेश बंद न हुआ। यामिनी को परेशान करने के लिए घरवालों को अब एक नया बहाना मिल गया था कि लड़की पैदा हुई है। दो साल बाद घर में फिर से स्त्रीलिंगी किलकारी गूंजी।
दुर्भाग्यवश अब मेघना की छोटी बहन भी उस क्लेश का हिस्सा बन चुकी थी।
इन्हीं झगड़ों को देखते हुए मेघना भी बड़ी हो रही थी परंतु घर के झगड़ों का असर यामिनी ने मेघना और उसकी छोटी बहन पर न पड़ने दिया। माँ के संस्कारों ने मेघना को सहनशीलता और सदाचार जैसे मानवीय गुणों की स्वामिनी बना दिया था।
झगड़े इतने बढ़ गए थे कि अब वे घर की दहलीज पार करके अदालत तक पहुंच चुके थे। तलाक लेने के लिए यामिनी और राजेश दोनों अब अलग रहने लगे थे। यामिनी राजस्थान में ही किसी शहर में रहने लगी थी। 

महीने में एक - दो बार मुंबई आकर वह अपने बच्चों से मिल लेती थी।उन्हें अपने से दूर रखना यामिनी के लिए बेहद कष्टकर था परंतु दोनों बच्चों की पढ़ाई के कारण यामिनी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकती थी सो बातें केवल फ़ोन पर ही हो पाती थी। बच्चे जब रोते और यामिनी से अपने पास आने की जिद करते तो फोन पर ही अच्छी अच्छी बातें करके वह उन्हें बहला देती। फिर फोन रखकर अपनी बेबसी और दुर्भाग्य पर फूट - फूट कर रोती। सुबह जब दफ्तर जाती तो आँखों की सूजन और लालिमा खुद ही सबको अपनी कहानी बयान करते।
मेघना भी अपनी छोटी बहन का ख्याल रखते- रखते उम्र से पहले ही बड़ी हो गई थी।छोटी बहन के लिए मेघना अब बड़ी बहन ही नहीं, माँ भी थी।

अब एक मुद्दत तक यामिनी और राजेश के अलग अलग रहने के बाद उनका तलाक हो गया।यामिनी जब अपने बच्चों और उनके सामान को लेने घर आई तो राजेश ने जाते - जाते मेघना से कहा कि वह चाहे तो उनके साथ रह सकती है।
पिता के होते हुए भी मेघना ने जिस घर में अनाथों- सी जिन्दगी जी थी, उस घर में वह कैसे रह सकती थी। उसने मना करते हुए कहा कि अब वह अपनी माँ के साथ रहना चाहती है।
अपनी माँ के एक कमरे की खुली और खुशहाल जिन्दगी उसे मंजूर थी पर अपने पिता का चार कमरों वाला घुटन भरा मकान उसे अब गंवारा न था। एक लंबे अरसे बाद उसे जाने- पहचाने अजनबियों से मुक्ति मिल रही थी। जिस सुख के लिए यामिनी मेघना और उसकी छोटी बहन तरसे थे वह आज उनके पास था। वह उस सुख को कैसे ठोकर मार सकती थी..
पूरा घटनाक्रम बताते- बताते मेघना का स्वर भीग आया था परन्तु उसने अपनी आँख से आँसू न छलकने दिए। मेघना की बातें सुनकर रेवती निशब्द थी। उसके मुंँह से कुछ न निकला।
 उसने केवल इतना पूछा कि क्या वह खुश है? मेघना ने मुस्कुराते हुए हामी भर दी और कहा, "मैम, अब केवल मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है।
उसकी सहनशक्ति और समझदारी के आगे रेवती नतमस्तक थी।
जाते - जाते उसने रेवती से उसका फ़ोन नम्बर लिया और उसके गले लगकर उससे विदा ली। 
 मेघना की कहानी ने रेवती के अंतस को इतना झकझोर दिया था कि उस के जाने के बाद वहीं कुर्सी पर निढाल हो कर बैठ गई और मेज पर सिर टिकाए फूट - फूटकर रोने लगी।उसके आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. मात्र ग्यारह साल की इस छोटी- सी बच्ची ने क्या कुछ नहीं सह लिया था  ।

🖋..... सुधा सिंह ♥️ ©


गुरुवार, 3 जनवरी 2019

नव वर्ष



अलविदा 2018

तूने अपने हर पहलू से मुझे रूबरू कराया
कभी हंसाया, तो कभी जार - जार रुलाया
अपने और परायों में भेद भी बतलाया
तुझे भूलना मुमकिन तो नहीं पर
तुझे जाने से कोई रोक भी नहीं सकता.

अलविदा 2018

..... ...... . 

नव वर्ष 
नव वर्ष तुम्हारे स्वागत में
हैं पालक पावड़े बिछे हुए
नव आशा, नव अभिलाषा में
राहों में पुष्प हैं खिले हुए।
रश्मि राथी का हाथ थाम
तुम पास हमारे आ जाओ
भर लो अपने आलिंगन में
ज्वाला नव प्रेम की सुलगाओ।।

Happy New year 2019

31.12.2018 सुधा सिंह 

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र

ओ धृतराष्ट्र,
क्यों तुझे शर्म नहीं आई?
घर की आबरू से जब
सारेआम खिलवाड़ हो रहा था..
जब तथाकथित अपने ही
अपनों को दांव पर लगा रहे थे.. "
तो तू मौन खड़ा
उस अत्याचारी दुर्योधन
का साथ क्यों देता रहा?
क्यों तूने यह नहीं समझा...
कि इतिहास में तेरा नाम
काले अक्षरों में
अंकित किया जाएगा..
माना कि तू विकलांग था
तू असहाय था पर
बुद्धि तो काम कर रही थी न!!!!
फिर क्यों????
क्यों पुत्रमोह में तूने अपनी
समझदारी को भी उसके चरणों में
समर्पित कर दिया था.

महाभारत कभी न होती, धृतराष्ट्र!!!!
अगर तू न होता..
होता अगर सही तू,
तो सुयोधन
कभी दुर्योधन न बनता....
तेरे कर्मों की सजा 
दुर्योधन न भुगतता....
महाभारत का असली गुनाहगार
दुर्योधन नहीं, तू है...
तेरा लालच, तेरी अधिकार लिप्सा
और तेरा पुत्र मोह है....
दुर्योधन तो बेचारा है
जो सदियों से
तेरे कर्मों की सजा भुगत रहा है.....
तू कालिख है, भारतवर्ष का
तू कलंक है, आर्यावर्त का.
इतिहास तुझे कभी क्षमा नहीं करेगा.....
ओ धृतराष्ट्र....

सुधा सिंह ©®

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

रात की थाली.( लघुकथा)

रात की थाली

बीस वर्षीया रागिनी को नहीं पता था कि सिंक में रखी वह एक थाली उसके ऊपर इतनी भारी पड़ेगी। 
भोजन समाप्त होने के पश्चात रागिनी, विकास, और उनका बेटा आरव जाने कब के सो चुके थे। तभी अचानक से कमरे के दरवाजे पर जोर - जोर से ठक - ठक हुई। इस ठक- ठक से सबकी नींद उचट गई।  दो वर्ष का मासूम आरव भी नींद टूट जाने के कारण रोने लगा था। घड़ी में तकरीबन ढाई बजे रहे थे। आँखों को मीचते हुए विकास ने दरवाजा खोला तो पाया कि पिताजी भन्नाए स्वर में शराब के नशे में जोर- जोर से चिल्ला रहे थे - "कहाँ है रागिनी, उठाओ उसे। समझ में नहीं आता उसे, रात में जूठे बर्तन सिंक में नहीं छोड़ते। रसोई जूठी हो तो देवी- देवता नाराज हो जाते हैं।"

रात को 11 से 12 बजे के दरमियान सबको खाना खिलाकर रागिनी ने एक थाली में अपने लिए भोजन निकाल कर रख दिया था कि बाद में खा लेगी।

बहू होने के नाते वह सबके साथ नहीं खा सकती थी। मजबूरीवश विकास को भी घरवालों के साथ ही खाना पड़ता था। विवाह के बाद विकास को भी कई बार ताने सुनने पड़े थे कि रागिनी के आने के बाद अधिक से अधिक समय उसके साथ ही बिताता है। उसके साथ ही खाना भी खाने लगा है।  हम अब अच्छा नहीं लगते आदि आदि ।

इन तानों से बचने के लिए ही उसने भी रागिनी के साथ भोजन करना छोड़ दिया था। अब रागिनी को रसोई में बैठकर अकेले ही भोजन करने की आदत हो गई थी । भोजन करना भी मात्र उसके लिए एक ड्यूटी बन कर रह गया था । घर के अन्य कार्यों की तरह वह भी एक ऐसा ही कार्य था जिसके बगैर नहीं चल सकता था। 

आज भी उसने यही सोचा था कि रसोई के सारे काम निबट जाने के बाद वह भी खाना खाकर सो जाएगी।
सास- ससुर को छोड़ कर घर के सभी सदस्य सो चुके थे परंतु ससुर जी शराब के नशे में धुत होकर अपने कमरे में रोज की तरह बडबड़ा रहे थे। 

ससुराल में नियम था कि रात में जूठे बर्तन रसोई में नहीं होने चाहिए, गैस चूल्हे को साफ करके ही सोना है।
काम समाप्त होते - होते रोज की तरह रात के एक बज चुके थे।जैसे तैसे उसने अपना भोजन भी ख़त्म किया। पर उस रात्रि वह बहुत अधिक थकावट महसूस कर रही थी इसलिए उसने सोचा कि बस एक थाली ही तो है। क्या फर्क पड़ता है। सुबह उठते ही साफ कर लेगी। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। यही सब विचार कर के वह भी सोने चली गई।पर शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इस दौरान ससुर जी न जाने किस काम से  रसोई घर में आये।सिंक में पड़ी उस जूठी थाली पर उनकी नजर पड़ गई।फिर क्या था, उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। गालियाँ बकते - बकते रागिनी से उन्होंने उसी समय वह थाली धुलवाई और तमतमाते हुए अपने कमरे की ओर चले दिए।रागिनी की आँख से भर - भर आँसू बहते रहे।सास और पति चुपचाप खड़े यह सब देखते रह गए।
सुधा सिंह 🖋 

शनिवार, 24 नवंबर 2018

जी चाहता है...



जी चाहता है.. 
फिर से जी लूँ

उन लम्हों को
बने थे साखी 
जो हमारे पवित्र प्रेम के,
गुजर गए जो 
बरसों पहले ,
कर लूँ जीवंत उन्हें ,
फिर एक बार ....
जी चाहता है 

अलौकिकता से 

परिपूर्ण वो क्षण 
जब दो अजनबी 
बंध गए थे
प्रेम पाश में... 
ऐहिक पीड़ाओं से 
अनभिज्ञ, 
हुए थे सराबोर 
ईश्वरीय सुख की 
अनुभूतियों से! 
एक स्वप्निले भव का
अभिन्न अंग बन 
आसक्त हो, 
प्रेम के रसपान से मुग्ध, 
दिव्यता से आलोकित 
प्रकाश पुंज का वह बिखराव.. 
मेरे चित्त को 
दैहिक बन्धनो से 
मुक्त करने को 
लालयित थे जो 
उस अबाध प्रवाह में 
बहने को 
आतुर थे हम 
कर लूँ 
उन क्षणों को 
फिर से आत्मसात 
जी चाहता है

पूर्णतया तुम में ही 
डूब जाने की बेकरारी, 
इस संसार को भुलाने को 
विवश करती,
तुम्हारी वह कर्णप्रिय
प्रेम पगी वाणी. 
फिर से जी लूँ 
वो पलछीन
जी चाहता है...