शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

आया बसंत

आया बसंत, आया बसंत!

झनन - झनन बाजे है
मन का मृदंग
चढ़ गया है सभी पर
प्रेम का रस रँग

बस में अब चित नहीं
बदला है  समां- समां
स्पर्श से ऋतुराज के
दिल हुए जवां - जवां

कोकिल सुनाए
मधुर -  मधुर गीत
सरसों का रंग
देखो पीत- पीत

खेतों में झूम रही
गेहूँ की बाली
मोरनी भी चाल चले
कैसी मतवाली

ख़ुश हुए अलि - अलि
 है खिल गई कली- कली

खग-विहग हैं डार - डार
बज उठे हैं दिल के तार
सात रंगों की फुहार
भ्रमर का मादक मनुहार

प्रकृति भी कर रही
सबका सत्कार है
हुआ मन उल्लसित
चली बसंत की बयार है

धानी चुनर ओढ़
धरणी मुस्काई
तितलियों को देख - देख
गोरी इठलाई

टेसू के फूल और
आम की मंजरियाँ
सुना रहे  हैं नित- रोज
नई - नई कहानियाँ

नवजीवन का हर तरफ
हुआ है संचार
आया बसंत लेके
देखो नव बहार









शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

बवाली बवाल..



निकली बवाली ये बातें बिना बात
मुकाबला बड़ा अलहदा हो गया है

बवाली बवाल ने ऐसा बलवा मचाया
कि चिट्ठा जगत बावला हो गया है

रचे कोई कविता और कोई कहानी
कि बेबात ये मामला हो गया है

बनता कभी है, ये फूटता कभी
अजी पानी का ये बुलबुला हो गया है

बाजी है किसकी और हारेगा कौन
बुझन में कितना झमेला हो गया है

खलल डाले नींदो मे, रातें हराम
तगड़ा बड़ा मसअला हो गया है

सिर चढ़ के सबके ये नाचन लगा है
तीन आखर का ये हौसला हो गया है

अजी छोडो बिना बात बातें बवाली
ये बवाल अब बड़ा मनचला हो गया है 

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

उस दिन  - कथाकाव्य 



उस दिन भोजन पकाकर
पसीने से तर-ब-तर बहू ने
कुछ ठंडी हवा खाने की चाह में
रसोई की खिड़की से बाहर झाँका ही था
कि पूरे घर में खलबली सी मच गई।
ससुर जी जोर- से झल्लाए.
सासू माँ का हाथ पकड़ रसोई में ले आए
और बोले,
"इसके चाल चलन में खोट है!क्या तुम्हें नजर नहीं आता!  ये बाहर गाड़ी में बैठे ड्राइवर को ताक रही थी। अगुआ ने तो नाक ही काट ली हमारी।
ऐसे बुरे चाल- चलन वाली लड़की को हमारे मत्थे मढ़ दिया।
आने दो शाम को बताता हूँ  तुम्हारे बेटे को
 कि क्या - क्या कार-गुजारियाँ
रसोई की खिड़की से होती है!  "
सुनकर ससुर की बात
बहू वही थर - थर काँप रही थी।
संस्कारों में बंधी थी।
बड़ों के मुंह लगने की आदत न थी।
सो जवाब कुछ न दे पाई.
भागी - भागी अपने कमरे में आई और तकिये में मुंह छिपाए रोने लगी.
आँखों  से आँसू भर - भर गिरते थे,
जो थमने का नाम ही नहीं  लेते थे.
कहती भी क्या?
जब से शादी करके
इस घर की दहलीज के भीतर आई थी.
मानो ससुराल वालों ने
एक परमानेन्ट नौकरानी पाई थी.
रोज की झिड़की और तानों की आदत हो गई थी.
उम्र कम थी .
मानो बाल विवाह ही था.
मायके में पिता से डरती थी.
ससुराल में ससुर की चलती थी.
बेचारा पति उससे प्यार तो करता था
पर वह भी अपने पिता से खूब डरता था
घर में उसका भी
न कोई मान था, न सम्मान था.
वह तो पिता के इशारों का गुलाम था.

रात को थका - हारा पति घर लौटा।  जूते उतार कर कपड़े बदलने के लिए कमरे की ओर मुड़ा ही था कि क्रोध में भरे पिता ने उसे आवाज लगाई.
"आइए! अपनी बीवी की करतूत सुनिए. (व्यंग्‍य भरे लहजे में. )
दिन -भर रसोई की खिड़की में खड़े - खड़े गैर मर्दों से नैन - मटक्का करती है।  अब हमसे और नहीं संभाला जाता।  आप अपनी बीवी को इनके मायके छोड़ आइए या नौकरी - वौकरी छोड़ कर इनकी खिदमत में जुट जाईये!
मैं कहता हूँ - देख लेना सबके सब! कल को यही होगा, ये लड़का पंद्रह दिन अपनी नौकरी करेगा और पंद्रह दिन, अपनी बीवी की रखवाली!  "
इस तरह खूब खरी- खोटी सुनाकर पिताजी अपने कमरे में चल दिए।
बेचारे पति के मुंह से एक शब्द न फूटा।
पत्नी की आँख के आंसू जो शाम होते - होते
 कुछ थम  गए थे, वे फिर बह निकले थे। पत्नी ने बाहर आकर भोजन परोसा।
पर भूखे- प्यासे पति के गले से खाने का एक भी निवाला न उतरा। पत्नी के आँसू और तेजी से बह निकले।  इस घर में उसे अपना भविष्य साफ- साफ नजर आ रहा था और पति बेचारा अपने सिर पर हाथ रखे रात- भर न जाने क्या सोचता रहा।








शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

सुख का सूर्य

सुख का सूर्य है कहाँ, कोई बताए ठौर!
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण देख लिया चहुँ ओर!!
देख लिया चहुँ ओर कि बरसों बीत गए हैं!
चूते चूते घट भी अब तो रीत गए हैं!!
राम कसम अब थककर मैं तो चूर हो गया!
रोज हलाहल पीने को मजबूर हो गया !!
नेताओं के छल को मैं तो समझ न पाता !
निशि दिन उद्यम करने पर भी फल नहीं पाता !!
फल नहीं पाता, विधि ने कैसा रचा विधान!
खेतों में हल था मेरा, चूहे ले गए धान!!
आरक्षण के कारण, वे चुपड़ी रोटी खाते!
खोकर अपना हक, हम भूखे ही हैं  सोते !!
समीप देख परीक्षा हम जी जान लगाएँ!
बिना किसी मेहनत के वे पदस्थ हो जाएं!!
ज्यादती है यह सब, है नहीं बचा अब धैर्य!
कोई बता दो मुझे कहाँ है सुख का सूर्य!!
Pic credit :Google

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

अब लौट आओ प्रियवर..... 


अब लौट आओ प्रियवर.....
अकुलाता है मेरा उर अंतर..
शून्यता सी छाई है रिक्त हुआ अंतस्थल.
पल पल युगों समान भए
दीदार को नैना तरस गए
इंतजार में तुम्हारे पलके बिछी हैं
तुम बिन बिखरा बिखरा सा मेरा संसार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
कि थम जाती है मेरी हर सोच
तुम पर आकर
रुक जाता है वक़्त तुम्हें न पाकर
पांव आगे ही नहीं बढ़ते
वो भी ढूँढते हैं तुम्हें
रातें करवटों में तमाम हो जाती है
तुम बिन बेकार ये संसार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

बंद करती हूँ आँखें कि
नींद की आगोश में जाके
कुछ सुनहरे ख्वाब बुन लूँ
कुछ शबनमी बूँदों की तरावट ले लूँ
पारियों के लोक में पहुंच कर
दिव्यता का आभास कर लूँ
पर यह हो नहीं पाता क्योंकि तुम संग न हो
तुम बिन न कोई तीज है न त्योहार है प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
संदेश भेजा है  तुम्हें
मेरे प्रेम की भीनी भीनी
खुशबू लेकर हवाएँ गुजरेंगी,
जब पास से तुम्हारे,
गालों को तुम्हारे चूमते हुए,
कर लेना एहसास मेरे नेह का
कि तुम बिन चहुँ ओर सिर्फ अंधकार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
कि रात के शामियाने से..
कुछ नशा चुराया है तुम्हारे लिए..
थोड़े से जुगनू समेटे हैं तुम्हारे लिए...
तारों की झालर सजाकर
सागर से रवानी भी ले आई हूँ तुम्हारे लिए
थोड़ी शीतलता चाँदनी भी दे गई है हमारे लिए
तुमसे मिलने का बस इंतजार हैं प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर