गुरुवार, 21 सितंबर 2017

कहानी है मेरी पड़ोसन की


कहानी है मेरे पड़ोसन की - 
एक दिन वह मेरे पास आई 
उसकी आंखें थी डबडबाई 
उसे चिंतित देख जब रह न पाई 
मैंने उससे पूछ ही डाला - 
इस उदासी का क्या है कारण? 
आख़िर ऐसी क्या है बात ?
कहो तो कुछ उपाय सोचे
जल्द से जल्द करें  निवारण 
कुछ सकुचाते बामुश्किल से 
उसने आप बीती सुनाई - 

बहनजी, मेरा बेटा करता है 
हरदम अपनी ही मनमानी 
नहीं सुनेगा बात मेरी  
जैसे उसने मन मे ठानी 
नहीं समझ आता मुझे 
कहूँ कौन- कौनसी बात 
चिपका रहता फोन से सदा, 
दिन हो या रात


आज तो हद ही हो गई 
जब मैंने उसका फोन लिया छीन 
तो हो गया वह बहुत खिन्न 
कहने लगा मुझसे-
आप अपने काम से काम रखो 
आप जब घंटों लगी रहती हो फोन पे 
अपनी सखियों के संग 
तो क्या मैंने कभी डाला है 
आपके रंग में भंग 
आप कौनसा दादी की बात सुनती हो
जो मैं आपकी सुनू! 
आपका बेटा हूँ
आपके नक्शे कदम पर हूँ! 
आप उन्हें नहीं गिनती 
तो मैं आपको क्यों गिनू? 
अब भला आप ही बताइए- क्या मैं ऐसी हूँ!

सुनकर उसकी बातें मुझे हँसी आई 
मैं मुस्कराई 
वह थोड़ी चौंकी, थोड़ी सकपकाई 
मुझ पर प्रश्नभरी नजरे गड़ाई 
और दागा एक सवाल -
मेरे घर में मचा है बवाल 
यहाँ मेरी जान जाती है 
और आपको हँसी आती है 

मैंने उसे उस दिन का वाकया याद दिलाया - 
क्या वह दिन तुम्हें याद है 
जब मैं , तुम और तुम्हारी सास
 सिनेमाघर घर फ़िल्म देखने गए थे ¿
और हम तीनों एक साथ 
अगल - बगल की सीट पर बैठे थे
तभी तुम्हें वहाँ अपनी दो सखियाँ नजर आईं
खुशी के मारे चेहरे पर तुम्हारे मुस्कान छाई 

तुमने उन्हें अपने पास बुलाया 
और उनकी सीट पर हमें बिठाया 
इंटरवल में सखियों संग 
सेल्फी का मजा खूब उठाया 
कोक समोसा पॉपकॉर्न भी 
जमकर तुमने खाया 
भूल गई तब हम दोनों को
थे हम भी तो साथ तुम्हारे 
माँ जी बोल नही कुछ भी पाई 
बस मन मसोसकर रह गई 

 तब मैंने पढ़े थे उनके भाव
फ़िल्म देखी थी व्यंग्य भरे
पर अश्रु गिरे थे उसी ठाव 
तब तुमने नहीं,  
मैंने उन्हें संभाला था 
भर भर आँसू गिरते थे पर
मुँह पर उनके ताला था 
हाँ मैंने उन्हें संभाला था 

सुन बात भरी वह लज्जा से 
जमीन हिल गई पाँव तले  
दौड लगाई उल्टे पांव 
और मां जी के पैरों में पड़ी 

कर बद्ध क्षमा मांगी उसने 
वह  मंजर बड़ा सुहाया था
ममतामयी दया की मूरत 
माता ने गले लगाया था 

सुधा सिंह 🦋

  
चित्र :गूगल साभार 

सोमवार, 18 सितंबर 2017

मैं और मेरी सौतन

डरती हूँ अपनी सौतन से
उसकी चलाकियों के आगे मैं मजबूर हूँ
कहती है वह बड़े प्यार से - "तुम जननी बनो.
गर्भ धारण करो.
अपने जेहन में एक सुंदर से बालक की तस्वीर गढ़ो.
उसका पोषण करो.
आनेवाले नौ माह की तकलीफें सहो.
प्रसव में पीड़ा हो तो घबराना नहीं.
कोई चिंता फिकर करना नहीं.
मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी.
तुम्हें कुछ भी होने न दूंगी.

प्रसूति के बाद
जब एक ह्रिश्ट पुष्ट  बालक गोद में आ जाएगा.
तो मुझे सौंप देना,
मै उसकी परवरिश करूंगी
क्योंकि...
तुम्हें तो पता है कि मैं तुमसे बेहतर हूँ.
मैं उसमे अपने संस्कार डालूंगी,
मुझे पता है कि
तुममें मेरे जैसी रचनात्मकता नहीं है "

हर बार ऐसा ही तो हुआ है- मेरा अंश मुझसे छीनकर अपना बताया गया है.
और मुझे साबित किया गया है कि मैं नकारा हूँ.
क्योंकि मेरे पति अक्सर दूरदेश रहते हैं
मुझसे ज्यादा मेरी सौतन से मोहब्बत करते हैं l

उस जैसी व्यवहारकुशलता मुझमे नहीं
इसलिए उसके आगे, मैं सदा हारती रही.
तकदीर से लड़ती रही, झगड़ती रही,

पर अब सहा जाता नहीं है ,
लेकिन क्या करूँ?
झूठ का नक़ाब भी तो ओढ़ा जाता नहीं.

मना लेती हूँ खुद को
कि झूठ की इस दुनिया में
सच हमेशा ही परास्त हुआ है!
मासूमों से छल कपट और विश्वासघात हुआ है.

मेरे सिद्धांत, मेरे संस्कार मुझे धृष्टता करने से रोकते हैं.
विवश हूँ
मैं उसकी शतरंजी चाल के आगे
और इंतज़ार में हूँ
शायद कभी तो उसका अंतःकरण जागे.
वो मेरा अंश, मेरा बालक  मुझे लौटाए.
मेरे हिस्से का श्रेय मुझे मिल जाए.


चित्र गूगल साभार




सोमवार, 19 जून 2017

बेचारा बछड़ा (एक प्रतीकात्मक कविता )

देख रही हूँ आजकल कुछ नए किस्म की गायों को
जो अपने नवजात बछड़े की
कोमल काया को
अपनी खुरदुरी जीभ से चाट चाट कर लहूलुहान कर रही है!
इस सोच में कि वह उन पर प्यार की बरसात कर रही है!
उनपर अपनी ममता लुटा रही है उन्हें सुरक्षित महसूस करा रही है!
पर इस बात से अनजान कि
वह खुद ही अपने बच्चे को कमजोर बना रही है!
इस बात से अनजान कि बछड़े के शरीर से
रक्त श्राव हो रहा है धीरे धीरे!
वह रक्त कोई और नहीं,
माँ ही पी रही है धीरे धीरे!
     
माँ का स्पर्श पाकर बछड़ा मगन था!
वह से उससे इतना जुड गया था कि उसे दर्द का एहसास भी नहीं होता था!
एहसास थाउसे माँ के प्रेम का, दुलार का,
पर बेखबर था अपनी कमजोर होती काया से!

बछड़ा धीरे धीरे बड़ा तो हो गया पर
अपने पैरों पर खड़ा होना सीख न पाया, चलना सीख न पाया.
वह मां की ममता तले इतना दब गया कि
 वह दुनिया का सामना करने लायक
न बन पाया, वह निर्बल था.

उसका इतना जतन हो रहा था!
कि जाने अनजाने कब उसका पतन हो गया, पता ही नहीं चला.
बेचारा बछड़ा....


सोमवार, 5 जून 2017

धरती की पुकार

पाताल में समाने को बेताब है धरा।
आँखों में करुणा विगलित अश्रु है भरा।
हृदय से उसके निकलती एक ही धुन।
हे मनुज, मेरी करुण पुकार तो सुन..

"तूने ऐसे कर्म किए!
बचा नहीं कुछ भविष्य के लिए!
जो कुछ मैंने तुझे दिया!
गलत उसका उपयोग किया!

थी मैं कभी नई दुल्हन - सी!
 हो गयी आज जर्जर, गुमसुम - सी!
मेरी अंतिम साँस भी उखड़ रही है!
हालत प्रतिदिन बिगड़ रही है!

मुझको न तू इतना सता!
मुँह खोल और यह तो बता!
माता पुत्र का क्या  है नाता !
क्या ये तुझको नहीं पता !

क्या मैं तेरी माँ नहीं!
या तू मेरा पुत्र नहीं!
मेरी ऐसी हालत है!
पर तुझकॊ कोई फिकर नहीं!

मैंने कई इशारे किए!
कहीं सुनामी, कहीं जलजले!
और कहीं भूकंप दिए!

पर तुझकॊ समझ ना आया है!
घमंड अभी भी छाया है!

हो चुका है अब तू  हृदयहीन!
मैं भी हो गई हूँ सबसे खिन्न!
मन तो ये करता है मेरा!
कर दूँ तुझकॊ छिन्न भिन्न!

हो गई हूँ अब मैं भी क्रूर!
तूने कर डाला मजबूर!
छाया है जो तुझे गुरूर!
करूंगी उसको चकनाचूर!

अब मैं तुझको बतलाउंगी!
सबक तुझे मैं सिखलाउंगी!
अब मैं जीना छोड़ दूँगी!
तुझकॊ भी अब ले डूबूंगी!"




रविवार, 21 मई 2017

मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए,
पाने फिर इनको कहाँ जाइये?

वो पेड़ो पर चढ़ना, गिलहरी पकड़ना,
अमिया की डाली पर झूले लगाना,
वो पेंगें मारके  बेफिकरी से झूलना,
वो मामा और मासी का मनुहार करना,
मेरे रूठ जाने पर मुझको मनाना,
पाने फिर इनको कहाँ जाइये?
मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

खिलौनों की खातिर वो रोना मचलना,
वो छुप्पन छुपाई, वो रस्सी कुदाई,
वो गुड़िया और गुड्डे की शादी रचाना,
साखियों के संग मिलके ऊधम मचाना,
वो कट्टी, वो बट्टी , वो रूठना मनाना,
वो परियों के किस्से, वो झूठी शिकायत,
पाने फिर इनको कहाँ जाइये?
मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

लगोरी का अड्डा, वो गिल्ली, वो डंडा,
वो भवरों का चक्कर, वो कंचे छुपाना,
वो खेतों में जाना, वो इमली चुराना,
वो मिट्टी सने तन लेके चुपके से आना,
न खाने की चिंता, न सोने की फिक्र,
पाने फिर इनको कहाँ जाइये?
मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

वो राजा, वो रानी, वो चोर और सिपाही,
वो बारिश के पानी में नावें चलाना,
वो रास्ते पर साइकिल के टायर दौड़ाना,
तितली की पूँछ में वो धागा लगाना,
वो विक्रम बेताल, चाचा चौधरी और साबू,
पाने फिर इनको कहाँ जाइये?
मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

वो शोखी, शरारत , वो भूली - बिसरी बातें,
वो अल्हड़पन, वो मासूमियत पुनः चाहिए!
हाँ..
मुझे मेरा बचपन पुनः चाहिए!

सुधा सिंह 🦋 

सोमवार, 15 मई 2017

व्यस्त हूँ मैं

व्यस्त हूँ मैं..
क्योंकि मेरे पास कोई काम नहीं है,
इसलिए व्यस्त हूँ मैं...

काम की खोज में हूँ!
रोजगार की तलाश में हूँ!
रोज दर - दर की खाक छानता हूँ!
डिग्रीयां लिए - लिए
दफ्तर- दर- दफ्तर भटकता हूँ!
इसलिए व्यस्त हूँ मैं...

मेहनतकश इन्सान हूँ!
पर सिफारिश नहीं है!
दो वक़्त की रोटी की खातिर
कितनी जूतिया घिसी है ,
उनकी गिनती का भी समय नहीं,
इसलिए कि व्यस्त हूँ मैं ...

घरवालों को किया हुआ वादा
भी पूरा नहीं कर पाता हूँ !
देर शाम जब घर की
दहलीज पर पहुंचता हूँ तो
उनके मुख पर एक प्रश्नचिह्न पाता हूँ !
एक मूकप्रतीक बन
स्तब्धता से खड़ा रह जाता हूँ !
और सिर झुकाकर अपनी
लाचारी का परिचय देता हूँ !
मेरे पास किसी को देने के लिए
कुछ भी नहीं है, जवाब भी नहीं है!
इसलिए कि व्यस्त हूँ मैं ..

प्रतिदिन व्याकुलता से किसी
खुशखबरी की प्रतीक्षा करते- करते
उनकी आंखें भी मायूस सी हो जाती हैं !
फिर भी रोज एक नई उम्मीद लिए
मेरे साथ नई भोर
का इंतजार करती हैं !
उन्हीं आशाओं को पूरा करने के लिए
व्यस्त हूँ मैं ..

होली, दिवाली, पर्व, त्योहार
ये क्या होते हैं, इन्हें कैसे मनाते हैं!
मैं नहीं जानता
क्योंकि इनके लिए भी अर्थ लगता है!
उसी अर्थ की खोज में हूँ !
इसलिए व्यस्त हूँ मैं.

सोचा कोई कारोबार या
व्यापार कर लूँ !
पर इस अर्थ ने ही तो
सब अनर्थ कर डाला है !
हर काम में दाम लगता है !
उस दाम की खोज में हूँ !
इसलिए व्यस्त हूँ मैं ..

दिन भर की इस तथाकथित
व्यस्तता के बाद,
जब नींद मुझे अपने पहलू में ले लेती है ,
तो सितारों से उनकी नाराजगी का सबब भी नहीं पूछ पाता!
इसलिए व्यस्त हूँ मैं..

मेरे जीवन बेमानी नहीं,
उसका कुछ अर्थ है!
वही अर्थ देने में लगा हूँ!
इसलिए व्यस्त हूँ मैं..

बेरोजगार हूँ तो क्या हुआ?
सपने बहुत देखे हैं मैंने!
उन सपनों को साकार करना ही
मेरा मक़सद है!
इसलिए व्यस्त हूँ मैं..

सुधा सिंह 🦋







शनिवार, 13 मई 2017

माँ

माँ

माँ ऐसा कुछ नहीं,
जो तेरी ममता के समतुल्य है!
मुझपर तेरा प्रेम, तेरा कर्ज अतुल्‍य है!

धूप में सदा तू छाँह की तरह रही ,
पापा की डाँट से बचाने वाली ढाल की तरह रही!
मेरी दुख की घड़ियों में सुख के सुर और मधुर ताल की तरह रही!

अपनी हर ख्वाहिश को दबा कर,
मेरी हर ख्वाहिशों को पूर्ण किया!
मुझे चेतना दी, ज्ञान दिया
हर तरह परिपूर्ण किया!

मान सम्मान और स्वाभिमान से
जीने की  कला सिखाई!
मेरे बहकते कदमों को
सही राह दिखाई!

तुझसे दूर होने पर एक खालीपन का
एहसास होता है मुझे!
 फिर भी आसपास तेरे साये का
आभास होता है मुझे!

माँ... तेरी हर बात शिरोधार्य है!
तेरा होना,
मेरी जीवन्तता के लिए अपरिहार्य है!

माँ तेरा कोई सानी नहीं!
तेरी ममता के आगे
प्यार की कोई कहानी नहीं!

माँ...
तुझे शत् शत् नमन
तुझे शत् शत् नमन..

Happy mothers day

सुधा सिंह  🦋




बुधवार, 10 मई 2017

'भावों की गरिमा '



'भावों की गरिमा '



भावों की क्या बात करें
भावों की अपनी हस्ती है
भावो के  रंग भी अगणित हैं
इससे ही दुनिया सजती है

मूल्यांकन भी  इसका ...
व्यक्ति दर व्यक्ति होता है!
गैरों को भी प्रेम भरी
माला में ये तो पिरोता है

भाव महानुभावों के है तो
'वाह भाई वाह.. क्या बात' है
दीन, अकिंचन, मजदूर के हैं
तो उसकी क्या 'औकात' है!

माँ के भाव शिशु के लिए
ममता बन जाते हैं..
पति पत्नी में रोमांस जगाते हैं
शत्रु में  बैर बढ़ाते हैं!

शाहजहाँ के भावों ने  था,
ताजमहल  को बनवाया!
अनारकली को अकबर ने,
दीवारों में  था चुनवाया !

 जिन रंगो से पोषित होते,
ये वही रँग दिखाते हैं!
खुशियों में आँखों से बहते,
दुख में कंठ रून्धाते हैं!

श्रद्धा से चरणों में गिरते
गर्व में शीश उठाते हैं!
मान में करते सीना चौड़ा
लज्जा में सिर को झुकाते हैं!

पत्थर जैसे कठोर है ये
कभी ओस की तरह पावन भी!
हिय में टीस उठे जब भी
नयनो से बरसता सावन हैं

रंग है इसके भाँति भाँति
व्यक्ति का निर्माता ये!
जैसा जिसने रंग चुन लिया
वैसी छवि बनाता ये!

तो..
दूजे के भावों को समझना
बहुत - बहुत जरूरी है!
यही बढ़ाए निकटता ,
और यही बढ़ाता दूरी है!

भावों की क्या बात करें..
भावों की अपनी हस्ती है!
भावो के  रंग भी अगणित हैं..
इससे ही दुनिया सजती है!

सुधा सिंह 🦋






रविवार, 7 मई 2017

मुझे ऐसा हिंदुस्तान चाहिए!


मुझे ऐसा हिंदुस्तान चाहिए!

मुझे एक खुला और उन्मुक्त आसमान चाहिए!
बिके जहाँ आशा का सूरज, ऐसी एक दुकान चाहिए! (1)

संवेदनाए अभी बाकी हो जिसमें, ऐसा इन्सान चाहिए!
दरों -दीवारों से टपके जहाँ प्रेम रस, ऐसा एक मकान चाहिए!(2)


मझधार में फंसे डूबते जहाज को जो पार लगा दे, ऐसा कप्तान चाहिए!
देशहित में जी - जान लुटा दे, ऐसा नौजवान चाहिए!(3)

रेगिस्तान में जो पुष्प खिला दे, ऐसा बागबान चाहिए!
दुर्दिन में भी जो अविचल रहे, ऐसा ईमान चाहिए!(4)

जो सुप्त आत्मा को जगा दे, ऐसा अंतरज्ञान चाहिए!
जो उन्नत शिखर तक पहुंचा दे, ऐसा सोपान चाहिए!(5)

देश की गरीबी और भुखमरी का, समाधान चाहिए!
आरक्षण की बात न हो जिसमें, ऐसा एक संविधान चाहिए!(6)

धर्म - अधर्म से परे हो जो, ऐसा एक जहान चाहिए!
चैन से जी सकूँ जहाँ, हाँ.. मुझे ऐसा  हिंदुस्तान चाहिए! (7)

सुधा सिंह 🦋 

बुधवार, 3 मई 2017

आख़िरी लम्हा


 आख़िरी लम्हा

और हाथ से रेत की तरह फिसल गया
जो कुछ अपना सा लगता था!
दोनों हाथों को मैं निहारता रहा
बेबस, लाचार, निरीह - सा
और सोचता रहा, कहाँ से चला था,
पहुंचा कहाँ हूँ!

उम्र की साँझ ढलने को है,
कितना कुछ छूट गया पीछे,
खड़ा हूँ, अतीत के पन्नों को पलटता हुआ,
भूतकाल की सीढ़ियों से गुजरता हुआ!
पुरानी यादों के कुछ लम्हे,
खुशियों और गम में बंटे हुए!
खोकर कुछ पाया था !
पाकर कुछ खोया था

इधर मैले कुचैले से कुछ ढेर
उधर जर्जर - सी खाली पड़ी मुंडेर!
उजड़े हुए घोसले
वीरान खड़े पेड़!

न चिड़ियों का कलरव,
न बच्चों की आहट!
न बाहर से कोई दस्तक,
न भीतर कोई सुगबुगाहट!

समय उड़ रहा है पंख लगाए
अब न किसी के आने की आस
न किसी के जाने की फिकर
सब कुछ बेतरतीब तितर बितर

घड़ी की टिक- टिक के साथ,
गुजरते पलों में,
उस आखिरी लम्हें का इंतज़ार

बस अब यही है पाने को.....