कह दो न मुझे अच्छी,
यदि लगे कि अच्छी हूँ मैं
तुम्हारे मुँह से,
अपने बारे में,
कुछ अच्छा सुन शायद
थोड़ी और अच्छी हो जाऊँगी मैं,
अपने जीवन में कुछ बेहतर, न न..
शायद बेहतरीन, कर पाऊँगी मैं
बढ़ा दो न
अपनी प्यार भरी हथेली मेरी ओर
कि पाकर तुम्हारा सानिध्य,
तुम्हारी निकटता, शायद
निकल पाऊँ जीवन के झंझावातों से
और गिरते - गिरते संभल जाऊँ मैं
और दे देना,
मुझे छोटा - सा,
नन्हा- सा एक कोना अपने
हृदय की कोठरी में कि
कइयों जुबाने
मुझे लगती हैं, कैंची सी आतुर,
कतरने को मुझे
शायद तुम्हारे अंतस का
अवलंबन ही मुझे मनुष्य बना दे
बोलो क्या कर सकोगे तुम,
यह मेरे लिए, या, अपने लिए
क्योंकि तुम में और मुझमें
अंतर ही क्या है??
हो जाने दो, यह सम्भव
वस्तुतः तुम्हारा मैं
और मेरा तुम हो जाना ही
तो प्रकृति है न
यह समर्पण भाव ही तो
मनुष्यता कहलाती है
आओ तुम और मैं
हम दोनों,
आज से मनुष्य बन जाते हैं।