बुधवार, 4 मार्च 2020

रेल का सफ़र




रेल के सफर
की तरह है जिन्दगी
और हम सब उसके मुसाफिर।
मिला है सबको एक- एक डिब्बा।
किसी को थर्ड क्लास कंपार्टमेंट
तो किसी को आरामदायक,
सुखद ए. सी. की
पर्दों लगी फर्स्ट क्लास कोच।
जिसमें कइयों स्टेशन आते हैं।
और उन स्टेशनों पर चढ़ते है
कई नए मुसाफिर,
नई आशाओं,
नई उम्मीदों की
ढेर सारी गठरी लादे।
सबका अपना-अपना नजरिया
अपना - अपना गंतव्य।
कोई अकेले सफर करता है
तो कोई अपनों के साथ।
कोई अकेला होकर भी
सबको अपना बनाता चलता है।
तो कोई भीड़ में भी अकेला
उद्विग्न, अनमना-सा रहता है।
जिसे शिकायत है सबसे,
अपने आप से भी ।
जिसे न अपने लक्ष्य का पता होता है
न गंतव्य की खबर।
किन्तु हर स्थिति - परिस्थिति
को झेलते, हँसते, मुस्कुराते,
ईश्वर को पूजते,
कोसते हुए एक दिन
सब पहुँचते हैं एक ही स्थान पर
अपने उस परम गंतव्य पर
जिसका स्वरूप
न कभी समझ आया था
न समझ आएगा ।
फिर भी जाने- अनजाने
रेल का यह सफ़र
सब तय करते हैं।




रविवार, 23 फ़रवरी 2020

याद हमें भी कर लेना.... नवगीत

नवगीत 

विधा :कुकुभ छंद (मापनी16,14) 




पल पल हम हैं साथ तुम्हारे *
वरण हमारा कर लेना *
परम लक्ष्य संधान करो जब,*
याद हमें भी कर लेना*

साथ मिले जब इक दूजे का, *
कुछ भी हासिल हो जाए ।*
शूल राह से दूर सभी हो, *
घने तिमिर भी छँट जाएँ।। *
मुट्ठी में उजियारा भर कर, *
दूर अँधेरा कर देना। *
परम लक्ष्य संधान करो जब, *
याद हमें भी कर लेना ।। *

नहीं सूरमा डरे कभी भी, *
कठिनाई कितनी आई। *
रहे जूझते जो लहरों से,
ख्याति कीर्ति उसने पाई।। *
कष्टों से भयभीत न होना, *
बात गांठ यह कर लेना। *
परम लक्ष्य संधान करो जब, *
याद हमें भी कर लेना।। *

अभी उजाला हुआ, सखे हे! *
मानव हित कुछ कर जाना। *
पथ में बैरी खड़े मिलेंगे, *
मत पीछे तुम हट जाना।। *
जब जब मुल्क पुकारे तुमको,
कलम छोड़ शर धर लेना।
परम लक्ष्य संधान करो जब, *
याद हमें भी कर लेना ।। *

पल पल हम हैं साथ तुम्हारे *
वरण हमारा कर लेना *
परम लक्ष्य संधान करो जब,*
याद हमें भी कर लेना*






बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

तेरी यादों में रोया हूँ...




एक ग़ज़ल नुमा रचना

तेरी यादों में रोया हूँ....


हँसा हूँ तेरी बातों पे ,तेरी यादों में रोया हूँ
प्यार है बस तुझी से तो,प्यार के बीज बोया हूँ।

खटकता हूँ सदा तुझको, मुझे य़ह बात है मालूम ,
मगर सपने तेरे देखे ,तेरी यादों में खोया हूँ।

मेरी आँखों के अश्रु भी, तुझे पिघला सके न क्यों
तेरी नफ़रत की गठरी को, दिवस और रात ढोया हूँ।

कदर तुझको नहीं मेरी, तेरी खातिर सहा कितना,
मिली रुस्वाइयाँ फिर भी, प्रीत - माला पिरोया हूँ ।

गए हो लौटकर आना, कभी दिल से भुलाना ना,
नहीं मैं बेवफा दिलबर, वफ़ा में मैं भिगोया हूँ ।
सुधा सिंह 'व्याघ्र'



मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

दुधमुँहा बचपन

 
क्या कहने
उस मासूमियत के
जो किसी वयस्क की चप्पलें
उल्टे पैरों में पहने
चली आई थी मेरे दरवाजे पर,
पाँवों को उचकाकर
धीरे धीरे अपने
कोमल हाथों से
कुंडी खटखटा रही थी
खोलकर दरवाजा
जब मैंने
उस नन्ही परी को देखा
तो सहसा चेहरे पर
मुस्कान ने दस्तक दे दी
उसे घर के भीतर बुला लूँ
यही सोच
मैंने उसकी ओर
बढ़ाया ही था अपना हाथ
कि छन छन करती
नन्हीं बुलबुल
अपने नन्हें कदमों से
अपने घर की तरफ दौड़ चली।
नन्हें पाँवों में छन -छन
करती पाजेब
और मासूम किलकारियाँ
अलौकिकता का अहसास लिए
पूरे वातावरण को गुँजा गईं
और मैं
घर की दहलीज पर खड़ी
उस दुधमुँहे बचपन में कहीं खो गई।


सुधा सिंह व्याघ्र





बस यूँ ही... फोन और मैं

बस यूँ ही...फोन और मैं।

बस, कई बार यूँ ही.. 
समय बर्बाद करती
पाई गई हूँ मैं
मेरे ही द्वारा।
कभी मुखपोथी पर
कभी व्हाट्सएप के 
अनेकों समूहों पर।
जब -तब नोटिफिकेशन
का स्वर उभर कर
मुझे खींचता है अपनी ओर
और मैं ...
मैं बहुत आवश्यक
काम छोड़कर
पहले फ़ोन उठाने
लपकती हूँ
कि कहीं किसी को
बहुत ज़रूरी कार्य न हो
कहीं कोई किसी मुश्किल में
न फँसा हो
रात को भी फ़ोन 
बंद नहीं करती 
बस यही सोचकर।
मैं क्यों स्वयं को
इतना महत्व देने लगी हूँ
कि वे अपनी परेशानियों में 
मुझे याद करेंगे और मैं 
उनके किसी काम आ सकूँगी।
सभी तो समझदार हैं 
फिर भी मैं.. 
बस यूँ ही ...
मैं अक्सर फोन पर
समय बरबाद करती 
पाई जाती हूँ मेरे ही द्वारा।

 सुधा सिंह