शनिवार, 11 मई 2019

गलतफहमी


कभी अपनी फिक्र नहीं होती उन्हें
दूसरों की चिंता में
अपने सुनहरे जीवन की
कुर्बानी देने से भी
कभी घबराते नहीं वे.
परायों को भी अपना
बना लेने का गुर
कोई इनसे सीखे.
इनका प्रयोजन
कभी गलत नहीं था
फिर भी वे इल्जाम लगाते हैं,
कि इनके ही कारण कई
अपने प्राणों से
हाथ धो बैठे.
कई जीवन उजड़ गए.
कई घर तबाह हो गए.
और भी न जाने क्या क्या.
पर ये हमेशा निर्दोष ही साबित हुए
इनकी इसमें कोई गलती ही नहीं थी
दूसरों ने इन्हें समझने की
कभी कोशिश ही नहीं की
और स्वयं ही गलतफहमी
का शिकार हो गए.
पर इक्के दुक्के जो
गलतफहमियों
के भँवर से निकलने में
कामयाब रहे,
वे खुश रहने लगे.
इसमें गलती गलतफहमी
पालनेवाले की है न कि उनकी.
फिर भी प्रत्येक बार
वे उन्हें ही दोष देते हैं.
परिणामस्वरूप खुद ही पछताते भी हैं.
वे क्यों नहीं समझते कि
अच्छे मकसद से किए गए
जुर्म की सजा नहीं सुनाई जाती.
यही विधाता के दरबार का भी नियम है.
जबसे यह पृथ्वी प्रकट हुई है
उनका प्राकट्य भी तभी हुआ था.
तभी से उनका नाम चला आ रहा है.
वे अजर हैं और अमर भी.
और हम उन्हें
कभी कभार प्रेम से,
परंतु, ज्यादातर घृणा से
पुकारते हैं - 'लोग।'



जीवन




जाल बिछाता है और डालता है दाने
#शिकारी बनकर के जीवन , शिकार करता है।

कभी दुखों का प्रहार, कभी सुखों का उपहार
#मदारी बन उंगलियों पर नाच नचाता है।

मूस मांजर की क्रीड़ा में रंक होता राजा तो
एक क्षण में दाता अकिंचन #भिखारी हो जाता है।

पावों में डाल बंधन, हंटर से करके घायल
करके मनुज पर #सवारी,अपनी चाकरी कराता है।

कभी लाभ, कभी हानि,कभी नकद या #उधारी,
अच्छे बुरे सब कर्म छली जीवन ही कराता है।

सुधा सिंह ✍️
कोपरखैराने, नवी मुंबई

गुरुवार, 9 मई 2019

घिनौनी निशानियां


कितना बेहतरीन था भूत मेरा
रहते थे हम सब साथ सदा.
न कोई अणु बम
न परमाणु बम.
न ईर्ष्या न द्वेष
न  ही मन में कोई रोष.
न थी कोई टेक्नोलॉजी
न ही सीमाओं पर फौजी.
न ये ऊंँची- नीची जातियाँ
ये तरक्की नहीं,
ये हैं तरक्की की घिनौनी निशानियांँ.
गुम है कहीं,
प्रकृति माँ की गोद का वो आनंद
झरने और नदियाँ, जो बहते मंद मंद.
चिड़ियों की चहक
और फूलों की महक.
काश पाषाण युग में ही
अपनी इस तरक्की का
कलुषित स्वरूप जान पाता.
तो आज अपनी इस अनभिज्ञता
पर न पछताता.
क्या पता था
कि ऐसा युग भी आएगा
जब व्यक्ति स्वयं को
इतना एकाकी पाएगा.
खुद को अनगिन
परतों के नीचे छुपाएगा
और चेहरे पर ढेरों चेहरे लगाएगा .... 

मंगलवार, 7 मई 2019

कातर स्वर


कातर स्वर  
करे धरणि पुकार ।
स्वार्थ वश मनुष्य
अपनी जड़ें रहा काट।।
संभालो, बचा लो
मैं मर रही हूँ आज।
भविष्य के प्रति हुआ
निश्चिंत ये इन्सान।

उजाड दिया कानन
पहाड़ दिए काट।।
फैलाता रहा गंदगी
नदियों को दिया बांध।
निज कामनाओं हेतु
करता रहा अपराध।।

न चिड़ियों की अब चहक है
न ही कोकिल की कूक।
बढ़ती हुई इच्छाएँ
मिटती नहीं है भूख ।।

गगनचूमती अट्टालिकाएँ
प्रदूषण रहा बोल
चढ़ता रहा पारा।
घर में कैद मनुज 
दिया स्वयं को ही कारा।।

क्यों सुप्त हो बोलो!!!
अपने अनागत को तोलो!!
मेरी जर्जर स्थिति भांप जाओ!!
अब तो जाग जाओ... अरे अब तो जाग जाओ

रविवार, 5 मई 2019

वाह रे चापलूसी........


वाह रे चापलूसी, तुझमें भी बात है।
तू जिसके पास होती,वह बन्दा बड़ा खास है।।

दुम हीनों को दुम दे, तू श्वान बनाती है।
जीभ लपलपाना , तू उसको सिखाती है।।

यस मैम, जी हुजूरी, तू जिससे कराती है।
कंगाल हो जो बंदा, मालामाल बनाती है।।

धर्म, कर्म, शर्म को, तू मुंह न लगाती है।
पास हो ये जिनके, उनसे दूर चली जाती है।।

रख राम राम मुँह में, यही बात सिखाती है
छुरी हो बगल में, यही सबक देकर जाती है

ईमानदारी और प्रतिभा से, तू बैर कराती है
निठल्लों, निकम्मों को, तू शेर बनाती है।।

कर बॉस की प्रशंसा, कुर्सी के पाँव चटाती है।
तू भूल गई मानवता, तुझे शर्म नहीं आती है।।

वाह रे चापलूसी........