IBlogger interview
मंगलवार, 24 अप्रैल 2018
मंगलवार, 17 अप्रैल 2018
यक्ष प्रश्न
यक्ष प्रश्न
जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..
और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.
हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा वह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!
सुधा सिंह 🦋
शनिवार, 14 अप्रैल 2018
जरूरी है थोड़ा डर भी
जरूरी है थोड़ा डर भी
मर्यादित अरु सुघड़ भी.
इसी से चलती है जिंदगी,
और चलता है इंसान भी.
जो डर नही
तो मस्जिद नहीं ,मंदिर नहीं.
गुरुद्वारा नहीं और गिरिजाघर नहीं.
और खुदा की कदर भी नहीं.
और खुदा की कदर भी नहीं.
ना हो डर,
रिश्ते में खटास का,
रिश्ते में खटास का,
तो मुंह में मिठास भी नहीं.
डर न हो असफलता का,
तो हाथ में किताब भी नहीं.
डर नही जो गुरु का,
तो विद्या ज्ञान नहीं.
डर ना हो इज्जत का,
तो मर्यादा का भान नहीं
डर न हो कुछ खोने का,
तो कुछ पाने का जज्बा नहीं.
जो डर नहीं जमीन जायदाद का,
तो कोई अम्मा नहीं, कोई बब्बा नहीं.
डर नहीं तो, सभी नाते बड़े ही सस्ते हैं.
डर नहीं तो, सब अपने - अपने रस्ते हैं.
ये डर है, तो रिश्ते हैं.
ये डर है, तो प्यार की किश्तें हैं
तो जरूरी है थोड़ा डर भी.
मर्यादित अरु सुघड़ भी.
इसी से चलती है जिंदगी,
और चलता है इंसान भी.
गुरुवार, 12 अप्रैल 2018
मृत हूँ मैं!
हमेशा से ऐसा ही तो था
हाँ.. हमेशा से ऐसा ही था
जैसा आज हूँ मैं
न कभी बदला था मैं
और ना ही कभी बदलूंगा
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
मेरे पास...
आत्मा तो कभी थी ही नहीं
भीड़ के साथ चलता हुआ
एक आदमी हूँ मैं
हाँ.. आदमी ही हूँ
पर विवेक शून्य हूँ मैं
क्योंकि... मृत हूँ मैं!
देखता हूँ शराबी पति को
बड़ी बेरहमी से, पत्नी को
मारते हुए, दुत्कारते हुए
पर.. मैं कुछ नहीं करता
'ये उनका आपसी मसला है!'
कहकर पल्ला झाड़ लेता हूँ मैं
क्योंकि.. मृत हूं मैं!
मेरी आँखों के सामने
किसी मासूम की आबरू लुटती है
और मैं.. निरीह सा खड़ा होकर देखता हूँ..
न जाने क्या सोचता हूँ
मेरे अंतस का धृतराष्ट्र
कुछ नहीं करता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!
पर जब बारी आती है
कैंडल मार्च की
तो मैं भी.. कभी - कभार,
हाँ.. कभी- कभार अपनी उपस्थिति
दर्ज करवाने से पीछे नहीं हटता
और कभी - कभार तो
दूसरों से प्रभावित होकर
उनकी राय को
एक सुंदर - सा
लबादा पहनाकर
उसे अपनी राय बना देता हूँ..
मेरी अपनी कोई राय नहीं..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
आठ बजे से छह बजे की नौकरी
में ही तो मेरा अस्तित्व है
मैं किसी और के लिए
जी ही नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!
कोई अम्बुलंस
बगल से जा रही हो
तो मैं.. उसे जाने का रास्ता नहीं देता
अरे.. उसी जैसा तो मैं भी हूँ न
अचेतन..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
मेरे ही आँखों के सामने
सरेआम.. कोई शहीद हो जाता है..
कोई गोलियों से भून दिया जाता है..
और मैं कुछ नहीं कर पाता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
देश के लिए मर मिटने की जिम्मेदारी
मेरे कंधों पर थोड़े ही है
वो काम तो सिपाहियों का है
आखिर.. इस देश से मुझे मिला ही क्या है
नहीं भाई...यह सब तो
मैं सोच भी नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
नेताओं को गाली देना
तो जन्म सिद्ध अधिकार है मेरा
पर एक अच्छा नेता बनकर
देश की कमान संभालना..
उसे ऊंचाई पर ले जाना..
मेरा काम नहीं है
चुनाव के दिन छुट्टी
समझ में आती है मुझे
पर वोट करना नहीं समझता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
मैं ,मेरा के आगे..
मुझे दुनिया दिखाई नहीं देती
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
और शायद..हमेशा
ऐसा ही रहूँगा मैं
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
हाँ.. मृत हूँ मैं!
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!
हाँ.. मृत हूँ मैं!
सोमवार, 9 अप्रैल 2018
छूना है मुझे चाँद को
छूना है मुझे चाँद को
सोचती हूँ कि कर लूँ, मैं भी
कुछ मनमानियाँ , थोड़ी नदानियां
उतार फेंकू, पैरों में पड़ी जंजीरे
बदल दूँ, अपने हाथों की अनचाही लकीरें
तोड़ दूँ, दकियानूसी दीवारों को
उन रिवाजों , उन रवायतों को
जो मेरे पथ में चुभते है कंटकों की तरह
क्यों हैं सारी वर्जनाएँ केवल मुझपर लादी
चाहती हूं मैं , बस थोड़ी- सी आजादी
मैं एक स्त्री हूँ, भक्षण-भोग का कोई सामान नहीं
हूँ, उन जैसी ही एक इंसान,कोई पायदान नहीं
सोचती हूँ भर लूँ, मैं भी अपनी उड़ान
और पा लूँ अपना मनचाहा आसमान
छूना है मुझे चाँद को, तारों को,
ऊँची - ऊँची मीनारों को
चाहिए मुझे भी मेरी एक आकाशगंगा
चमकीला, दूधिया, रंगबिरंगा
दे दो मुझे! मेरे वो पर
जो कतर दिए तुमने बेरहमी से
लोक - लाज के डर से
बचाने के लिए मुझे
उस गंदी नजर से
जो तैयार बैठे हैं मुझे नोच खाने के लिए
अपनी हवस मिटाने के लिए
समझकर मुझे केवल जिस्म का एक टुकड़ा
गिद्ध के सदृश पल -पल ताक लगाए
बैठे हैं वो नजरें गड़ाए कि
एक शिकार, बस हाथ लग जाए....
सुधा 🦋
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