शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

प्रश्न

उग आते हैं कुछ प्रश्न ऐसे
जेहन की जमीन पर
जैसे कुकुरमुत्ते
और खींच लेते हैं
सारी उर्वरता उस भूमि की
जो थी बहुत शक्तिशाली
जिसकी उपज थी एकदम आला
पर जब उग आते हैं
ऐसे कुकुरमुत्ते
जिनकी जरुरत नहीं थी किसी को भी
जो सूरज की थोडी सी उष्मा में
दम तोड देते हैं।
पर होते हैं शातिर परजीवी
खुद फलते हैं फूलते हैं
पर जिसपर और जहाँ पर भी पलते हैं ये
कर देते हैं उसे ही शक्तिहीन
न थी जिसकी आवश्यक्ता उस भूमि को
और न ही किसी और को
फिर भी उग आते हैं ये प्रश्न
खर पतवार की तरह
अपना अस्तित्व साबित करने
कुछ कुकुरमुत्ते होते हैं जहरीले
इन्हें  महत्व दिया जरा भी
तो हाथ लगती है
मात्र निराशा
होता है अफसोस
धकेल देता है ये
असमंजस के भंवर में उसे
जिसके ऊपर
 इसने पाया था आसरा
बढ़ाई थी अपनी शक्ति
और काबू पा लेता है उस पर
जो फँसा इनके कुचक्र में
घेर लेते हैं जिसे ये प्रश्न
छीन लेते हैं चैन और सुकून
छोड़ देते हैं उसे
बनाके शक्तिहीन ...
आखिर क्यों उगते हैं ये प्रश्न?

सुधा सिंह🦋

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

आलोक बन बिखरना



कोई बढ़ रहा हो आगे, मंजिल की ओर अपने
रस्ता बड़ा कठिन हो, पर हो सुनहरे सपने
देखो खलल पड़े न , यह ध्यान देना तुम
कंटक विहीन मार्ग, उसका कर देना तुम

माँगे कोई सहारा, यदि हो वो बेसहारा
मेहनत तलब हो इन्सां, न हो अगर नकारा
बन जाना उसके संबल, दे देना उसको प्रश्रय
गर हो तुम्हारे बस में , बन जाना उसके शह तुम

भटका हुआ हो कोई या खो गया हो तम में
हो मद में चूर या फिर, डूबा हो किसी गम में
हो चाहता सुधरना, आलोक बन बिखरना
बन सोता रोशनी का, सूरज उगाना तुम
                                             पढ़िए :रैट रेस

दुर्बल बड़ा हो कोई, या हो घिरा अवसाद से
हो नियति से भीड़ा वो, या लड़ रहा उन्माद से 
हास और परिहास उसका, कदापि करना न तुम
यदि हो सके मुस्कान बन,अधरों पे फैलना तुम

न डालना कोई खलल,न किसी से बैर रखना
हर राग, द्वेष, ईर्ष्या से, दिल को मुक्त रखना
हर मार्ग है कंटीला, ये मत भूलना तुम
बस राह  पकड़ सत्य की, चलते ही जाना तुम

सुधा सिंह 🦋 

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

जीवनदायिनी है नदिया




कल कल - संगीत मधुर, सुनाती है नदिया.
चाल लिए सर्पिणी- सी , बलखाती नदिया

ऊसर मरुओं को उर्वर बनाती है नदिया
तृष्णा को सबकी पल में मिटाती है नदिया

प्रक्षेपित पहाड़ों से होती है नदिया
वनों बियाबनों से गुजरती है नदिया

राह की हर बाधा से लड़ती है नदिया
सबके मैल धोके पतित होती है नदिया

मीन मकर जलचरों को पोषती है नदिया
अपने रव में बहते रहो, कहती है नदिया

तप्त हुई धरा को भिगाती है नदिया
अगणित रहस्यों को छुपाती है नदिया

शुष्क पड़े खेतों को सींचती है नदिया
क्षुधितों की क्षुधा को मिटाती है नदिया

क्रोध आए, प्रचंड रूप दिखाती है नदिया
फिर अपना बाँध तोड़ बिखर जाती है नदिया

कभी सौम्य है, तो कभी तूफानी है नदिया
कल्याण करे सबका जीवन दायिनी है नदिया

कई सभ्यताओं की जननी है नदिया.
खारे- खारे सागर की मीठी संगिनी है नदिया

सुधा  सिंह 🦋

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

बुलबुला पानी का






 मेरे ख्वाबों का वो  जहान
प्रतिदिन प्रतिपल टूटता है, फूटता है
और फिर बिखर जाता है ...
हो जाता है विलीन
एक अनंत में
एक असीम में...
तुच्छता, अनवस्था,
व्यर्थता का एहसास लिए ...
खोजना चाहता है
अपने अस्तित्व को..
पर सारे प्रयास, सारे जतन
हो जाते हैं नाकाम
तब... जब अगले ही पल में
अचानक से परिलक्षित
होने लगता है वही बदरंग परिदृश्य..
और शुरू हो जाती है
जद्दोजहद ख़ुद को पाने की
खुद को तलाशने की
और तलाश के उस दौर में
अंततः भीड़ का हिस्सा
बनकर रह जाने की अवस्था में ..
जैसे कोई बुलबुला पानी का
सतरंगी आभा का वह गोल घेरा....
जो एक पल सम्पूर्णता का एहसास कराता है
और फिर दूसरे ही पल,
 फूटते ही फैल जाती है शून्यता.....

सुधा सिंह 🦋 

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

एक और सियासत




कासगंज की धरती की
उस रोज रूह तक काँप गई
शोणित हो गई और तड़पी वह
फिर एक सपूत की जान गई

मक्कारी के चूल्हे में
वे रक्तिम रोटी सेंक गए
वोट बैंक की राजनीति में
खेल सियासी खेल गए

था कितना भयावह वह मंजर
माँ ने एक लाल को खोया था
उस शहीद के पावन शव पर
आसमान भी रोया था

भारत माँ के जयकारों पर
ही उसको गोली मारी है
सत्तावादी, फिरकापरस्त
ये केवल एक बीमारी हैं

कुर्बान हुआ फिर एक चंदन
कुछ बनवीरों के हाथों से
क्या लौटेगा फिर वह सपूत
इन गलबाजों की बातों से

ओढ़ मुखौटा खूंखार भेड़िये
क्यों मीठा बोला करते हैं?
क्यों सांप्रदायिकता का जहर
परिवेश में घोला करते हैं?

करते उससे ही गद्दारी
जिसकी थाली में खाते वो
जिसे माँ भारती ने पोसा
क्यों नर भक्षी बन बैठे वो?



सुधा सिंह 🦋