शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

फिर एक जीवन बर्बाद हुआ

सुनसान अँधेरी गलियों में,
उस मैले - कुचैले चिथड़े पर
वह दीन - अभागा सोता है।
माँ के आँचल का अमृत,
वो क्या जाने क्या होता है ।

माँ की ममता न मिली उसको,
न पिता का सिर पर हाथ रहा।
न कोई उसका दोस्त बना,
न किसी का उसको साथ मिला।
खुली जो आंखें, छत न थी,
हर तरफ ही उसको घात मिला

फुटपाथ ही माँ की गोद बनी,
छद बन गया उसका आसमां।
धूप से प्रतिदिन लड़ता है वह,
और ठण्ड से होता रोज सामना।
बरसात उसे अपनी - सी लगे
जी चाहे कोई मिले 'अपना'।

पेट की आग बुझाने को,
कूड़े का ढेर ढूँढ़ता है।
कभी बटोरे लोहा -लक्कड़
बोतलें कभी बटोरता है।
नंगे पैरों से खाक छानता
मारा -मारा वह फिरता है।

कभी खिलौनों पर मन आता
कभी होटल में खाने का।
बर्गर और कोल्ड्रिंक का
और कभी सिनेमा जाने का।
लंबी गाड़ी का स्वप्न कभी
कभी बड़ा अफसर बन जाने का।

इक आस लिए  जगता सुबह
इक आस लिए सो जाता है
ख़ुशियों से भरा होगा जीवन
यह सोच के दिल बहलाता है।
पर खाली हाथ सदा होता
जीवन उसका कुम्हलाता है

ज्ञान उसे अक्षर का नहीं
पर  ख़्वाबों से अनजान नहीं
पंछी बनने की चाहत है पर
पंखों में ही जान नहीं।
फिर एक जीवन बर्बाद हुआ
पर किसीको इसका भान नहीं ।

फिर एक जीवन बर्बाद हुआ
पर किसीको इसका भान नहीं ।

सुधा सिंह

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

देखो ठण्ड का मौसम आया।


देखो ठण्ड का मौसम आया।

शीत लहर चली ऐसी कि,
सबको कम्बल में सिमटाया।
मन नहीं करता बिस्तर छोडूँ,
मौसम ठण्ड का इतना भाया।

'सूरज दा' करते अठखेली,
चारों ओर कुहासा छाया।
सुखद गुलाबी ठंडी का,
यह माह दिसम्बर मन को भाया।

ईख का रस और गुड़ की भेली,
देख के सबका मन ललचाया।
आलू और मटर की पूरी,
सबकी थाली में है आया।

चाय-पकौड़े मन को लुभाते,
स्वेटर का है मौसम आया।
लहसुन-मिर्च-नमक की चटनी,
साग चने का खोंट के खाया।

शुद्ध हवा और ताजी सब्जियां,
देखके सबका मन ललचाया।
'जल' लगता बैरी-सा सबको,
छूने से भी मन घबराया।

पशु-पक्षी सब दुबके रहते,
और ठिठुरती सबकी काया।
गांवों की हर गली में सबने,
मिलकर है अलाव जलाया।

देखो ठण्ड का मौसम आया।

सुधा सिंह






रविवार, 20 दिसंबर 2015

कोयल


कोयल तू चिड़ियों की रानी ,
चैत मास में आती है।
अमराई में रौनक तुझसे,
कली - कली मुसकाती है।

तेरे आने की आहट से,
बहार दौड़ी आती है।l
दूर रजाई  कम्बल होते,
हरी दूब बलखाती है।

आमों में मिठास है बढती,
वसंत ऋतु इठलाती है।
कौवे मुर्गे चुप हो जाते,
जब तू सुर लगाती है।

कर्णो में रस घुलता है ,
तेरी मीठी वाणी सुन।
अंग - अंग झंकृत हो जाता ,
कोयल तेरी ऐसी धुन।

कालिख तेरे पंखों पर है,
कंठ विराजे सरस्वती माँ।
सबको अपनी ओर खींचती,
जब भी छेड़ती राग अपना।

तेरी वाणी मधुर है इतनी,
पवन भी तान सुनाता है।
धीरे - से गालों को छूकर,
दूर कहीं बह जाता है।

कीट पतंगे जब तू खाती ,
खेतों में फ़सलें लहराती।
साथी बनकर कृषकों के,
अधरों पर मुस्कान है लाती।

कूक तेरी बंसी -सी लगती,
मादकता चहुँ ओर थिरकती।
जर में भी तरुणाई आती,
जब तू अपनी तान लगाती।

सुधा सिंह

रविवार, 6 दिसंबर 2015

आखिर क्यों?

एक ओर अकाल की आहट है,
एक ओर प्रलयकारी वर्षा।
हम सबकी ऐसी करनी है
जिसकी हमको मिल रही सजा ।
थक गई है धरती सब सहकर
ईश्वर को है दे रही सदा........,

"करके तन - मन मेरा छलनी,
हँसते हैं ,आती ना लज्जा।

इनकी बुद्धि है भ्रष्ट हुई,
ये मुझे न अपने लगते हैं।
जो अपनी माँ पर जुल्म करे,
क्या इनको 'बेटा' कहते हैं।

इंसान की कोख के रोग हैं ये,
दानव की भाँति लड़ते हैं।
आँखों में इनकी शर्म नहीं,
आपस में जंग ये करते है।

मानवता रोती फूट- फूट कर,
इनकी ऐसी हरकत है।
हर अंग मेरा सिसकता है,
आतंक की इतनी दहशत है।

सिरिया हो ,या फ्रांस हो,
हर जगह पे रक्त बहाया है।
मेरी प्यारी मुम्बई पर भी,
कसाबों का पड़ता साया है।

घटिया सोच से ग्रसित हैं ये ,
क्यों रक्त पान ये करते हैं।
पाला न पड़ा संस्कारों से ,
धरमों की दुहाई देते हैं।

लाशों के सीने पे चढ़कर,
नाच गान ये करते हैं।
हो गई इंतेहा जुल्मों की,
ये सबसे नफ़रत करते हैं।

रिश्तों में कोई मिठास नहीं,
कटुता ही कटुता छाई है।
मुख में राम बगल छूरी,
ये रीत सभी को भाई है।

अब यह सब बर्दाश्त नहीं होता,
मन करता है संहार करूँ।
हो गई है हद अब सहने की,
इतना सब आखिर क्यों मैं सहूँ।

अकाल हो सुनामी हो ,
चाहे ग्लोबल वार्मिंग हो,
नित नए रूप मैं दिखाऊंगी।
इनको इनकी करनी का फल,
अब किसी भी हाल चखाऊँगी।

अपनी नई संतति को ,
अब नर्क भेंट में ये देंगे।
तब तक उत्पात मचाऊंगी,
जब तक न सबक ये सीखेंगे।"

सुधा सिंह

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तकदीर

कैसी तेरी कलम थी ,कैसी तेरी लिखावट!
पन्ना भी चुना रद्दी,स्याही में थी मिलावट!
अक्षर हैं बड़े भद्दे ,न है कोई सजावट!
धरती बनाई ऐसी ,कि हर जगह बनावट!

लिखने का मन नहीं था,
तो क्यों लिखी तकदीर मेरी।
किस बात का बदला लिया,
क्यों मेरे विरूद्ध चाल चली।
ऐसा दिया जीवन मुझे कि,
रूह तक मेरी जली।
हुआ तू 'परमपिता' कैसे
तुझसे तो सौतेली माँ ही भली।

मुन्नी है मेरी भूखी, मुन्ना न गया स्कूल।
बदन पे नहीं चिथड़े ,पैरों में चुभे शूल।
दो जून की रोटी नहीं,जलता नहीं है चूल्ह।
क्यों पैदा करके हमको ,ये रब तू गया भूल।

संघर्ष भरा जीवन ,और कष्ट हैं अनेक।
हर युग में तू आया ,यहाँ कलयुग में आके देख।
रावण ही नहीं कंस भी ,अब मिलेंगे अनेक ।
ऐसे जहाँ में जीकर ,फिर एक बार देख ।

हर जगह ठोकर यहाँ , है हर तरफ अपमान।
 है घूँट ये जहरीला, पीना नहीं आसान।
न उम्मीद की किरण है ,न सुख की कोई आहट।
न प्यार की खनक है ,न कोई सुगबुगाहट।

कहते है तेरे घर में, अंधेर नहीं है
देर है भले ही , हेर - फेर नहीं है
बालक हूँ तेरा ,जिद है मेरी, अब तो मुझे देख।
हाथों मेरे खींच दे ,सौभाग्य की एक रेख।

बस आखरी इल्जाम, मैंने तुझको  दिया है।
 दिल से हूँ क्षमाप्रार्थी ,गर  पाप किया है।