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शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

मर्जी तो मेरी ही चलेगी......


आज कल वो रोज मिलने लगा है.
बेवक्त ही, आकर खड़ा हो जाता है
मेरी दहलीज पर.
"कहता है- तुम्हारे पास ही रहूँगा.
बड़ा लगाव है, बड़ा स्नेह है तुमसे."

पर मुझे उससे प्यार नहीं.
भला एक तरफ़ा प्यार
कौन स्वीकार करेगा .
मुझे भी स्वीकार नहीं.

हाँ, थोड़ी बहुत जान - पहचान है उससे.
पर यूँ ही... हर किसी से
थोड़े ही दिल लगाया जाता है.

जब - तब झिड़क देती हूँ.
उसे दुत्कार भी देती हूँ,
पर 'हिकना' है वो.
मानता ही नहीं.

जतन तो कई किए मैंने
उसे अपने से दूर करने के.
पर, आ जाता है मुँह उठाए."
और अड़ा रहता है  बेलौस सा.

बस मेरे पीछे ही पड़ गया है.
बड़ा नामुराद है वो साहब

कहता है- 'दर्द हूँ मैं.
कर लो कुछ भी,
मर्जी तो मेरी ही चलेगी."

📝 सुधा सिंह ♥



**'हिकना' (देशज शब्‍द ) - जो किसी की नहीं सुनता,
अपने मन की बात सुनने वाला.

शनिवार, 24 नवंबर 2018

जी चाहता है...



जी चाहता है.. 
फिर से जी लूँ

उन लम्हों को
बने थे साखी 
जो हमारे पवित्र प्रेम के,
गुजर गए जो 
बरसों पहले ,
कर लूँ जीवंत उन्हें ,
फिर एक बार ....
जी चाहता है 

अलौकिकता से 

परिपूर्ण वो क्षण 
जब दो अजनबी 
बंध गए थे
प्रेम पाश में... 
ऐहिक पीड़ाओं से 
अनभिज्ञ, 
हुए थे सराबोर 
ईश्वरीय सुख की 
अनुभूतियों से! 
एक स्वप्निले भव का
अभिन्न अंग बन 
आसक्त हो, 
प्रेम के रसपान से मुग्ध, 
दिव्यता से आलोकित 
प्रकाश पुंज का वह बिखराव.. 
मेरे चित्त को 
दैहिक बन्धनो से 
मुक्त करने को 
लालयित थे जो 
उस अबाध प्रवाह में 
बहने को 
आतुर थे हम 
कर लूँ 
उन क्षणों को 
फिर से आत्मसात 
जी चाहता है

पूर्णतया तुम में ही 
डूब जाने की बेकरारी, 
इस संसार को भुलाने को 
विवश करती,
तुम्हारी वह कर्णप्रिय
प्रेम पगी वाणी. 
फिर से जी लूँ 
वो पलछीन
जी चाहता है... 





 
 

शनिवार, 17 नवंबर 2018

एक और वनवास


~एक नया वनवास~

ढूँढ रही थी अपने पिता की छवि
उस घर के  सबसे बड़े पुरुष में
एक स्त्री को माँ भी समझ लिया था
प्रेम की गंगा बह रही थी हृदय से मेरे
लगा था बाबुल का घर छूटा तो क्या हुआ
एक स्वर्ग जैसा घर फिर से ईश्वर ने मुझे भेट में दे दिया
एक बहन भी मिल गई है सुख दुख बाँटने को
सब कुछ यूटोपिया सा
फिर अचानक से मानो ख्वाब टूटा
शायद मेरा भाग्य था फूटा
एक खौफ सा मंडराता था शाम - ओ-  सहर
मेरे सामने था मेरे सुनहरे सपनों का खंडहर
संत का वेश धरे थे
कुछ आततायी मेरे सामने खड़े थे
और उन सबका विकृत रूप
छीः कितना घिनौना और कितना कुरूप...

सपनों के राजमहल में
कैकेयी और मंथरा ने
फिर अपना रूप दिखाया था.
सीता की झोली में
 फिर से वनवास आया था.
फर्क इतना था कि इस बार
मंथरा दासी नहीं, पुत्री रूप में थी
और दशरथ थे  कैकेयी और
मंथरा के मोहपाश में..
हुआ फिर से वही जो
हमेशा से होता आया था
राम और सीता ने इस बार मात्र चौदह वर्ष नहीं,
अपितु जीवनभर का वनवास पाया था.
राम और सीता ने इस बार
आजीवन वनवास पाया था.

©®सुधा सिंह 🖋

बुधवार, 19 सितंबर 2018

मना है...


न  दौड़ना मना है,   उड़ना मना है
न गिरना मना है , न चलना मना है!
जो बादल घनेरे, करें शक्ति प्रदर्शन
तो भयभीत होना, सहमना मना है!

पत्थर मिलेंगे, और कंकड़ भी होंगे.
राहों में कंटक, सहस्त्रों चुभेंगे!
कछुए की भाँति निरन्तर चलो तुम,
खरगोश बन कर, ठहरना मना है!

भानु, शशि को भी लगते ग्रहण हैं..
विपदाओं को वे भी, करते सहन हैं!
विधाता ने गिनती की साँसे हैं बख्शी..
उन साँसों का दुरुपयोग करना मना है!

गिरा जो पसीना, तो उपजेगा सोना.
लहू भी गिरे तो, न हैरां ही होना .
निकलेगा सूरज, अंधेरा छटेगा.
नया हो सवेरा , तो सोना मना है!!!

📝 सुधा सिंह 🦋