~एक नया वनवास~
ढूँढ रही थी अपने पिता की छवि
उस घर के सबसे बड़े पुरुष में
एक स्त्री को माँ भी समझ लिया था
प्रेम की गंगा बह रही थी हृदय से मेरे
लगा था बाबुल का घर छूटा तो क्या हुआ
एक स्वर्ग जैसा घर फिर से ईश्वर ने मुझे भेट में दे दिया
एक बहन भी मिल गई है सुख दुख बाँटने को
सब कुछ यूटोपिया सा
फिर अचानक से मानो ख्वाब टूटा
शायद मेरा भाग्य था फूटा
एक खौफ सा मंडराता था शाम - ओ- सहर
मेरे सामने था मेरे सुनहरे सपनों का खंडहर
संत का वेश धरे थे
कुछ आततायी मेरे सामने खड़े थे
और उन सबका विकृत रूप
छीः कितना घिनौना और कितना कुरूप...
सपनों के राजमहल में
कैकेयी और मंथरा ने
फिर अपना रूप दिखाया था.
सीता की झोली में
फिर से वनवास आया था.
फर्क इतना था कि इस बार
मंथरा दासी नहीं, पुत्री रूप में थी
और दशरथ थे कैकेयी और
मंथरा के मोहपाश में..
हुआ फिर से वही जो
हमेशा से होता आया था
राम और सीता ने इस बार मात्र चौदह वर्ष नहीं,
अपितु जीवनभर का वनवास पाया था.
राम और सीता ने इस बार
आजीवन वनवास पाया था.
©®सुधा सिंह 🖋
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
पाठक की टिप्पणियाँ किसी भी रचनाकार के लिए पोषक तत्व के समान होती हैं ।अतः आपसे अनुरोध है कि अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन करें।☝️👇