कहते थे पापा,
" बेटी! तुम सबसे अलग हो!
सब्र जितना है तुममें
किसी और में कहाँ!
तुम सीता - सा सब्र रखती हो!! "
बोल ये पिता के
थे अपनी लाडली के लिए.........
या भविष्य की कोख में पल रहे
अपनी बेटी के सीता बनने की
वेदना से हुए पूर्व साक्षात्कार के थे।.....
क्या जाने वह मासूम
कि वह सीता बनने की राह पर ही थी
पिता के ये मधुर शब्द भी तो
पुरुष वादी सत्ता के ही परिचायक थे.
किन्तु वे पिता थे
जो कभी गलत नहीं हो सकते।
जाने अनजाने
पापा के कहे शब्दों को ही
पत्थर की लकीर
समझने वाली लड़की
सीता ही तो बनती है।
पर सीता बनना आसान नहीं होता।
उसके भाग्य में वनवास जरूरी होता है।
धोबी के तानों के लिए
और रामराज्य स्थापना के लिए
सीता सा सब्र जरूरी होता है।
नियति को सीता का सुख कहाँ भाता है
वह हर सीता के भाग्य में
केवल सब्र लिखती है।
दुर्भाग्य लिखती है।
वेदना लिखती है।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 20 सितम्बर 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-9-22} को "मानवता है भंग"(चर्चा अंक 4557) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-09-2022) को "मोम के पुतले" (चर्चा अंक 4559) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यथार्थ, सार्थक,हृदय को स्पर्श करने वाली रचना
जवाब देंहटाएंपर सीता बनना आसान नहीं होता।
जवाब देंहटाएंउसके भाग्य में वनवास जरूरी होता है। ...बहुत सही
सीता सा बनने की सीख ही नारी के हिस्से शायद दुख लिख देती है ।
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