शनिवार, 19 मई 2018

संभल जाओ..

 वत्स,आज तुम फिर आ गए मेरे पास
विनाश की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने.
अपने ही हाथों से अपना सर्व नाश कराने.
कब समझोगे मेरे ही अस्तित्व में निहित है
तुम्हारा भविष्य सुनहरा.
फिर भी चोट कर - करके धरा को तुमने कर दिया है अधमरा.

कैसे हो सकते हो तुम इतने कृतघ्न!
क्या तुम्हें बिल्कुल भी नहीं स्मरण!
कि मेरे ही फलों से तुममें होता है ऊर्जा का स्फूरण.
मेरी प्रक्षेपित वायु से होता है तुम्हारे प्राणों में स्पंदन .
मेरे रंगीं पुष्पों को देख तुम्हारे चेहरों पर आती है मुस्कान.
फिर भी क्यों हो तुम अपने भयावह भविष्य से अनजान.

संग मेरे जब खेलती है गिलहरियां
तो क्या वो तुम्हें चिढ़ाती हैं.
मेरी ओट में कोयल जब पंचम सुर लगाती है
तो क्या तुम्हें डराती हैं.
मेरी बाहों में झूला डाल झूलती हैं जब ललनाएँ
तो क्या तुम्हें नहीं भाता है.
नन्हें मुन्ने जब खेलते हैं चढ़के मुझपर
तो क्या वह भी तुम्हें खलता है.

इस वसुधा का हरा रंग तो तुम्हें खूब लुभाता है
मेरी छाँव तले विश्राम भी तुम्हें खूब भाता है
आज से नहीं युगयुगांतर से मेरा तुम्हारा नाता है .
फिर भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आता है.

मैं ही तो बादलों को बुलाकर वर्षा  करवाती हूँ.
मैं ही तो तुम्हें सूर्य के भीषण ताप से बचाती हूँ
बिन मेरे तुम कितने क्षण बिता पाओगे
बिन श्वास के क्या तुम जी पाओगे

विकास के इस अंध प्रवाह में
फिर क्यों तुम दौड़ लगा रहे हो!
भावी पीढ़ी के लिए आखिर
कौनसा उपहार छोड़े जा रहे हो!

समय है अब भी संभाल जाओ!
मुझपर कुल्हाड़ी न चलाओ!

याद रहे सामने तुम्हारे चुनौती बड़ी है.
अब मेरी निस्वार्थ सेवा का फल देने की घड़ी है

अपनी भावी पीढ़ी के शत्रु तुम न बनो.
उनके अच्छे भविष्य की नीव धरो.
कम से कम अपने जन्मदिन
पर ही वृक्षारोपण करो.

4 टिप्‍पणियां:

  1. इस वसुधा का हरा रंग तो तुम्हें खूब लुभाता है
    मेरी छाँव तले विश्राम भी तुम्हें खूब भाता है
    आज से नहीं युगयुगांतर से मेरा तुम्हारा नाता है .
    फिर भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आता है.
    सुंदर संदेश देती सार्थक रचना

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  2. चेतावनी के साथ सार्थक संदेश देती उत्कृष्ट रचना.

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  3. धरती सुर वृक्ष के मर्मान्तक स्वर प्रिय सुधा जी | काश !इंसान इन स्वरों को सुन ले अनदेखा ना करे | सस्नेह --

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  4. कम से कम अपने जन्मदिन पर वृक्षारोपण करो

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