IBlogger interview
गुरुवार, 20 सितंबर 2018
बुधवार, 19 सितंबर 2018
मना है...
न दौड़ना मना है, न उड़ना मना है
न गिरना मना है , न चलना मना है!
जो बादल घनेरे, करें शक्ति प्रदर्शन
तो भयभीत होना, सहमना मना है!
पत्थर मिलेंगे, और कंकड़ भी होंगे.
राहों में कंटक, सहस्त्रों चुभेंगे!
कछुए की भाँति निरन्तर चलो तुम,
खरगोश बन कर, ठहरना मना है!
भानु, शशि को भी लगते ग्रहण हैं..
विपदाओं को वे भी, करते सहन हैं!
विधाता ने गिनती की साँसे हैं बख्शी..
उन साँसों का दुरुपयोग करना मना है!
गिरा जो पसीना, तो उपजेगा सोना.
लहू भी गिरे तो, न हैरां ही होना .
निकलेगा सूरज, अंधेरा छटेगा.
नया हो सवेरा , तो सोना मना है!!!
📝 सुधा सिंह 🦋
शनिवार, 1 सितंबर 2018
प्यारी मैं....
मेरी प्यारी प्यारी... मैं....
अरे.!अरे... !मुझे पता है तुम क्या सोच रही हो?
तुम सोच रही हो .. कि आज मुझे क्या हो गया है??
कैसी बहकी - बहकी बातें कर रही हूँ ??
आज तक तो मैंने तुम्हें कभी प्यारी नहीं कहा!!
कभी प्यार से पुकारा नहीं!!
हमेशा तुम्हारी अनदेखा करती रही!!!
फिर अचानक से मुझे क्या सूझी???
यही न???
मैं....
मांगती हूँ आज तुमसे हृदयतल से क्षमा..
अहसास हुआ है मुझे अपनी गलती का ...
मांगती हूँ आज तुमसे हृदयतल से क्षमा..
अहसास हुआ है मुझे अपनी गलती का ...
मैंने की है तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी ..
तुम थी मेरे प्यार के लिए सदा से तरसी
मैं.. कैसे भूल गई कि..
तुम मेरी हो....
मेरी अपनी हो ..
मेरा ही तो फर्ज था कि मैं तुम्हें प्यार करूँ...
तुम्हें तुम्हारा हक दूँ!
अगर मैं ही तुमसे प्यार न करूंगी....
तो भला कोई और भी क्यों करेगा???
ज्ञात है मुझे ...
मैंने भी वही भूल की ...
जो लोग अक्सर किया करते हैं...
अपनी अनदेखी... अपनों की अनदेखी!!!!
किंतु जब होता है अहसास!!!!
तब तक हो जाता है बहुत कुछ ह्रास!!!
निकल चुका होता है बहुत कुछ हाथ से
बिल्कुल मुट्ठी की रेत की भाँति!
अंत में रह जाता है खाली हाथ... बेबस,
निरीह.. असहाय ... हतबुद्धि!
तुम चाहो तो उठक बैठक कर लूँ....
अपने कान मैं पकड़ लूँ ....
यह गलती दोबारा न होगी ...
क्या, बस एक बार मुझे माफी दोगी??
कैसे भूल गई .. तुम मेरे बिना और...
मैं तुम्हारे बिना अधूरी हूँ!!!
अब से .. मेरा पहला लक्ष्य है तुम्हें पाना..
पहले तुम्हें पा लूँ, फिर निकलूं..
अपने अगले गन्तव्य की राह तय करने !!!!
एक बेहतरीन इंसान बनने !!!
परंतु, इस बार अकेली नहीं....मैं जाऊँगी तुम्हारे साथ !
कहो ... दोगी न सदैव............. तुम मेरा साथ???
गुरुवार, 30 अगस्त 2018
कहना तो था पर..
कहना तो था पर
कभी कह न पाई!!!
कभी कह न पाई!!!
सोचकर ये कि,
पड़ोसी क्या कहेंगे...
समाज क्या कहेगा....
दुनिया क्या कहेगी....
मैं कुछ कह न पाई!!!!
पड़ोसी क्या कहेंगे...
समाज क्या कहेगा....
दुनिया क्या कहेगी....
मैं कुछ कह न पाई!!!!
बांध दी किसी ने बेड़ियाँ जो पैरों में,
तो छुड़ाने की कोशिश भी न की.
उसे अपना नसीब समझ लिया!
नसीब से कभी लड़ न पाई!
तो छुड़ाने की कोशिश भी न की.
उसे अपना नसीब समझ लिया!
नसीब से कभी लड़ न पाई!
कहना तो था पर....
सदियों से लड़कियां चुप ही रही थी.
गाय की तरह चारदीवारी में खूंटे से बंधी थी.
आदत भी तो इसी परंपरा की थी.
फिर मैं कैसे ये परंपरा तोड़ देती!!
कैसे अपना मुँह खोल देती!!
मैं ये परंपराएं तोड़ भी न पाई.
मैं कुछ कह न पाई.
गाय की तरह चारदीवारी में खूंटे से बंधी थी.
आदत भी तो इसी परंपरा की थी.
फिर मैं कैसे ये परंपरा तोड़ देती!!
कैसे अपना मुँह खोल देती!!
मैं ये परंपराएं तोड़ भी न पाई.
मैं कुछ कह न पाई.
कहना तो था पर....
चंचलता, कभी मेरी प्रकृति न थी.
कूप के मंडूक सी वृत्ति जो थी.
नदी की धार, बन बहने की प्रवृत्ति न थी.
अपने सागर में मिल न पाई!
मैं कभी कुछ कह न पाई!
कूप के मंडूक सी वृत्ति जो थी.
नदी की धार, बन बहने की प्रवृत्ति न थी.
अपने सागर में मिल न पाई!
मैं कभी कुछ कह न पाई!
कहना तो था पर....
शनिवार, 4 अगस्त 2018
अन्तरद्वन्द्व
अंतरद्वन्द्व
मेरी पेशानी , लंबी लकीरों से सजाते,
वक्त से पहले ही, जो मुझे बूढ़ा बनाते,
मेरे भीतर , ईर्ष्या - द्वेष जगाते,
मुझे अक्सर, गलत पथ पर दौड़ाते,
रचते साजिश सदा,
मेरे स्वजनों को, मुझसे दूर करने की
मेरे उसूलों से, मुझे डगमगा देने की
दिन का चैन, रात का सुकून छीन लेने की
अष्टप्रहर कोल्हू का बैल समझ, मुझे जोते रहने की
मेरे सुनहरे पलों को, बड़ी बेदर्दी से मुझसे छीन लेने की
बन अग्निशिखा अविराम, मेरे अंतर को सुलगाने की
आख़िर कौन है वो?????
वो लोभ है ..मृगतृष्णा वो ...
दिल चीख चीख़ है कहता ये ..
मस्तिष्क पर अभियोग चला
दिल देता उसको दोष सदा
नित अंतस... आर्तनाद करता
मेरा अंतस... आर्तनाद करता
मस्तिष्क भी, किंतु कम नहीं
नित प्रति दलीलें है देता -
संभ्रांत शब्दों में है कहता ....
मंजिल अपनी पानी हो तो
की जाए जो ..है साधना वो
वही पूजा... है अराधना वो
हूँ किंकर्तव्य विमूढ़ मैं ...
है गलत कौन
और कौन सही!!!!!!
आपस में क्यूँ फूट है इतनी...
क्यूँ इनमें सौहार्द्र नहीं!!!!!!
कैसे एक की बात को मानूँ ?
कैसे किसी से रार मैं ठानूं?
किस पक्ष को विजयी कह दूँ मैं
औ... किसे कहूँ- वह हुआ पराजित
यह द्वंद्व सदा से जारी है.........!!!!
सोमवार, 28 मई 2018
माँ भारती
1:गरिमा गान
माँ भारती महान
हमारी शान
2:खूबसूरत
जननी जन्म भूमि
तेरी मूरत
3:सारे जहाँ में
सदा झंडा लहरे
तेरी शान में
4: आग भरी हो
भारतीय रगों में
गद्दारी न हो
5:चाह है यही
हो भारत से दूर
भूख गरीबी
6:माथे पे मेरे
तेरी माटी चमके
संझा सबेरे
7:गाँधी बनूँ या
सुभाष बन जाऊँ
तो मोक्ष पाऊँ
8:कर दे हम
निछावर तुझी पे
जान सनम
9:जज्बा हमारा
तिरंगे के नीचे हो
संसार सारा
शनिवार, 19 मई 2018
संभल जाओ..
वत्स,आज तुम फिर आ गए मेरे पास
विनाश की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने.
अपने ही हाथों से अपना सर्व नाश कराने.
कब समझोगे मेरे ही अस्तित्व में निहित है
तुम्हारा भविष्य सुनहरा.
फिर भी चोट कर - करके धरा को तुमने कर दिया है अधमरा.
कैसे हो सकते हो तुम इतने कृतघ्न!
क्या तुम्हें बिल्कुल भी नहीं स्मरण!
कि मेरे ही फलों से तुममें होता है ऊर्जा का स्फूरण.
मेरी प्रक्षेपित वायु से होता है तुम्हारे प्राणों में स्पंदन .
मेरे रंगीं पुष्पों को देख तुम्हारे चेहरों पर आती है मुस्कान.
फिर भी क्यों हो तुम अपने भयावह भविष्य से अनजान.
संग मेरे जब खेलती है गिलहरियां
तो क्या वो तुम्हें चिढ़ाती हैं.
मेरी ओट में कोयल जब पंचम सुर लगाती है
तो क्या तुम्हें डराती हैं.
मेरी बाहों में झूला डाल झूलती हैं जब ललनाएँ
तो क्या तुम्हें नहीं भाता है.
नन्हें मुन्ने जब खेलते हैं चढ़के मुझपर
तो क्या वह भी तुम्हें खलता है.
इस वसुधा का हरा रंग तो तुम्हें खूब लुभाता है
मेरी छाँव तले विश्राम भी तुम्हें खूब भाता है
आज से नहीं युगयुगांतर से मेरा तुम्हारा नाता है .
फिर भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आता है.
मैं ही तो बादलों को बुलाकर वर्षा करवाती हूँ.
मैं ही तो तुम्हें सूर्य के भीषण ताप से बचाती हूँ
बिन मेरे तुम कितने क्षण बिता पाओगे
बिन श्वास के क्या तुम जी पाओगे
विकास के इस अंध प्रवाह में
फिर क्यों तुम दौड़ लगा रहे हो!
भावी पीढ़ी के लिए आखिर
कौनसा उपहार छोड़े जा रहे हो!
समय है अब भी संभाल जाओ!
मुझपर कुल्हाड़ी न चलाओ!
याद रहे सामने तुम्हारे चुनौती बड़ी है.
अब मेरी निस्वार्थ सेवा का फल देने की घड़ी है
अपनी भावी पीढ़ी के शत्रु तुम न बनो.
उनके अच्छे भविष्य की नीव धरो.
कम से कम अपने जन्मदिन
पर ही वृक्षारोपण करो.
विनाश की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने.
अपने ही हाथों से अपना सर्व नाश कराने.
कब समझोगे मेरे ही अस्तित्व में निहित है
तुम्हारा भविष्य सुनहरा.
फिर भी चोट कर - करके धरा को तुमने कर दिया है अधमरा.
कैसे हो सकते हो तुम इतने कृतघ्न!
क्या तुम्हें बिल्कुल भी नहीं स्मरण!
कि मेरे ही फलों से तुममें होता है ऊर्जा का स्फूरण.
मेरी प्रक्षेपित वायु से होता है तुम्हारे प्राणों में स्पंदन .
मेरे रंगीं पुष्पों को देख तुम्हारे चेहरों पर आती है मुस्कान.
फिर भी क्यों हो तुम अपने भयावह भविष्य से अनजान.
संग मेरे जब खेलती है गिलहरियां
तो क्या वो तुम्हें चिढ़ाती हैं.
मेरी ओट में कोयल जब पंचम सुर लगाती है
तो क्या तुम्हें डराती हैं.
मेरी बाहों में झूला डाल झूलती हैं जब ललनाएँ
तो क्या तुम्हें नहीं भाता है.
नन्हें मुन्ने जब खेलते हैं चढ़के मुझपर
तो क्या वह भी तुम्हें खलता है.
इस वसुधा का हरा रंग तो तुम्हें खूब लुभाता है
मेरी छाँव तले विश्राम भी तुम्हें खूब भाता है
आज से नहीं युगयुगांतर से मेरा तुम्हारा नाता है .
फिर भी तुम्हें क्यों कुछ समझ नहीं आता है.
मैं ही तो बादलों को बुलाकर वर्षा करवाती हूँ.
मैं ही तो तुम्हें सूर्य के भीषण ताप से बचाती हूँ
बिन मेरे तुम कितने क्षण बिता पाओगे
बिन श्वास के क्या तुम जी पाओगे
विकास के इस अंध प्रवाह में
फिर क्यों तुम दौड़ लगा रहे हो!
भावी पीढ़ी के लिए आखिर
कौनसा उपहार छोड़े जा रहे हो!
समय है अब भी संभाल जाओ!
मुझपर कुल्हाड़ी न चलाओ!
याद रहे सामने तुम्हारे चुनौती बड़ी है.
अब मेरी निस्वार्थ सेवा का फल देने की घड़ी है
अपनी भावी पीढ़ी के शत्रु तुम न बनो.
उनके अच्छे भविष्य की नीव धरो.
कम से कम अपने जन्मदिन
पर ही वृक्षारोपण करो.
गुरुवार, 17 मई 2018
विलुप्त की खोज
संवेदनाओं के भँवर में तैरते - तैरते
जाना मैंने कि मूरख हूँ मैं.
समझदारों की इस भीड़ में
इंसानों की खोज में हूँ मैं.
हाँ! इंसान की ,
जो कभी 'हुआ' करते थे
कब हुए वो लुप्त, अज्ञात है ये बात.
डायनासोर, डोडो पक्षी
या जैसे लुप्त हुई
कई अन्य प्राणियों की जात .
शायद भगवान से
खो गया है वह सांचा
जिसमें बनते थे इन्सां.
या फिर टूट गई है
वो सीढी जिससे
नीचे उतरते थे इन्सां.
छानी पुस्तकें कई ,
दिया गूगल बाबा को भी काम.
पर अफसोस... अपनी इस खोज में
सदा रहा नाकाम.
नहीं मिली कोई भी जानकारी
कि कब हुआ वह ग़ायब.
न जाने ईश्वर की वह नायाब रचना
फिर जन्म लेगी कब.
हाँ, इंसान के समरूप मुखड़े,
वैसी ही काठी और कद वाले
पुतले देखती हूँ मैं रोज.
जब करते हैं बातें भी वे समझदारी वाली
तब लगता है यूरेका.......
सफल हुई मेरी खोज.
पर मेरी समझ से
परे हैं ये समझदार.
गच्चा देने में सचमुच
माहिर हैं ये कलाकार.
पता ही नहीं लगता
कि हर एक को समझते हैं
वो अपना प्रतिद्वंद्वी.
लेकिन मैं किसी भी अंधी दौड़ में
शामिल नहीं ,
मैं हूँ एकदम फिसड्डी.
उन जैसी बातें भी
कभी मैं कर नहीं पाता हूँ .
इसलिए समझदारों की दुनिया में
मैं खुद को मूरख ही पाता हूँ.
रविवार, 13 मई 2018
प्यारी माँ
अदृश्य सी वह शक्ति जो सदैव मेरे साथ है
पता है मुझे माँ, कि वह तेरा ही आशीर्वाद है
तेरा प्यार,तेरी ममता, तेरा स्नेह माँ निर्विवाद है
तू मेरी संगी,मेरी साथी ,मेरी ईश्वर प्रदत्त मुराद है
तू मेरा बल, संबल, मेरे जीवन का आल्हाद है
तू गीत है, संगीत है , मेरे जीवन का नाद है
मेरा घर, परिवार, मेरा संसार तुझसे आबाद है
तू पूजा ,अराधना, तू ईश्वर से साधा मेरा संवाद है
माँ, तू है तो जीवन में खुशी है, हर्ष है,उन्माद है
तू मेरे चेतन, अचेतन, मेरे अस्तित्व की बुनियाद है
शनिवार, 12 मई 2018
बेदाम मोहब्बत
रातें कटती हैं करवटों में मेरी नींदें भी हराम हुई
न वो इकरार करते हैं न ही इनकार करते हैं
उल्फत में क्यू जफा ही मेरे नाम हुई
दिल की तड़प भी उन्हें दिखी नहीं या - खुदा
उनकी बेवफ़ाईयां ही क्यों मेरा ईनाम हुई
किस सिम्त उन्हें ढूंढे, वो चार सू नजर आते हैं
तलाश में उनकी मेरी मोहब्बत बदनाम हुई
दीदार से जिनके, मेरी रूह सुकूं पाती थी
महफिल से गए वो ऐसे कि कोई दुआ न सलाम हुई
देखके जिन्हें बज उठती थी सरगम दिल की
दिल की वो तारें भी अब गुमनाम हुई
इंतजार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
जुनून-ए -इश्क में बेकार सरेआम हुई
ऐसे तड़पना छोड़ दे तू ऎ दिल - ए - नादान
अब ये बेशकीमती मुहब्बत भी बेदाम हुई.
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