रविवार, 7 मई 2017

मुझे ऐसा हिंदुस्तान चाहिए!


मुझे ऐसा हिंदुस्तान चाहिए!

मुझे एक खुला और उन्मुक्त आसमान चाहिए!
बिके जहाँ आशा का सूरज, ऐसी एक दुकान चाहिए! (1)

संवेदनाए अभी बाकी हो जिसमें, ऐसा इन्सान चाहिए!
दरों -दीवारों से टपके जहाँ प्रेम रस, ऐसा एक मकान चाहिए!(2)


मझधार में फंसे डूबते जहाज को जो पार लगा दे, ऐसा कप्तान चाहिए!
देशहित में जी - जान लुटा दे, ऐसा नौजवान चाहिए!(3)

रेगिस्तान में जो पुष्प खिला दे, ऐसा बागबान चाहिए!
दुर्दिन में भी जो अविचल रहे, ऐसा ईमान चाहिए!(4)

जो सुप्त आत्मा को जगा दे, ऐसा अंतरज्ञान चाहिए!
जो उन्नत शिखर तक पहुंचा दे, ऐसा सोपान चाहिए!(5)

देश की गरीबी और भुखमरी का, समाधान चाहिए!
आरक्षण की बात न हो जिसमें, ऐसा एक संविधान चाहिए!(6)

धर्म - अधर्म से परे हो जो, ऐसा एक जहान चाहिए!
चैन से जी सकूँ जहाँ, हाँ.. मुझे ऐसा  हिंदुस्तान चाहिए! (7)

सुधा सिंह 🦋 

बुधवार, 3 मई 2017

आख़िरी लम्हा


 आख़िरी लम्हा

और हाथ से रेत की तरह फिसल गया
जो कुछ अपना सा लगता था!
दोनों हाथों को मैं निहारता रहा
बेबस, लाचार, निरीह - सा
और सोचता रहा, कहाँ से चला था,
पहुंचा कहाँ हूँ!

उम्र की साँझ ढलने को है,
कितना कुछ छूट गया पीछे,
खड़ा हूँ, अतीत के पन्नों को पलटता हुआ,
भूतकाल की सीढ़ियों से गुजरता हुआ!
पुरानी यादों के कुछ लम्हे,
खुशियों और गम में बंटे हुए!
खोकर कुछ पाया था !
पाकर कुछ खोया था

इधर मैले कुचैले से कुछ ढेर
उधर जर्जर - सी खाली पड़ी मुंडेर!
उजड़े हुए घोसले
वीरान खड़े पेड़!

न चिड़ियों का कलरव,
न बच्चों की आहट!
न बाहर से कोई दस्तक,
न भीतर कोई सुगबुगाहट!

समय उड़ रहा है पंख लगाए
अब न किसी के आने की आस
न किसी के जाने की फिकर
सब कुछ बेतरतीब तितर बितर

घड़ी की टिक- टिक के साथ,
गुजरते पलों में,
उस आखिरी लम्हें का इंतज़ार

बस अब यही है पाने को.....



रविवार, 23 अप्रैल 2017

अहसास

इल्म है मुझे कि तुम मेरे दुख का सबब भी न पूछोगे,
सोचके कि कही तुम्हें आँसू न पोछने पड़ जाएं
शायद अनजान बने रहना
ही तुम्हें वाजिब लगता है.

सुधा सिंह

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

तसव्वुर उनका.

देखा उन्हें ख्यालों में खोए हुए,
न जाने किसका तसव्वुर है,
जो उन्हें उनसे ही जुदा कर रहा है.

सुधा सिंह 

मंगलवार, 28 मार्च 2017

आईना



हमने उन्हें आईना दिखाया
 तो वे बुरा मान गए,
 शायद उन्हे सत्य से परहेज है. 

बाल कविता :भारत माँ के वीर सपूत हम

भारत माँ के वीर सपूत हम,
कभी नहीं घबराएंगे!
नहीं डरेंगे दुश्मन से,
छाती पर गोली खाएंगे!

हम साहस से भरे हुए हैं,
हर विपदा दूर भगाएंगे!
बधाए आती है आए,
हम उनसे टकराएंगे!
ध्वज को सदा रखेंगे ऊंचा,
उसकी शान बढ़ाएंगे!
भारत माँ के वीर सपूत हम,
हम कभी नहीं घबराएंगे!

रक्त से रंजित धरा न होगी,
हम सौगंध ये खाते हैं!
भारत माँ की सीमा की,
रक्षा की कसम उठाते हैं!
गर दुश्मन आँख दिखाएगा,
हम उसको सबक सिखाएँगे!
भारत माँ के वीर सपूत हम,
कभी नहीं घबराएंगे!

हम में लोहा भरा हुआ है,
हम न कभी भी डिगने वाले!
हम को रोक सका न कोई,
हम सीधी डगर पर चलनेवाले!
कोई राह हमारी रोके,
उसको सबक सिखाएँगे!
भारत माँ के वीर सपूत हम,
कभी नहीं घबराएंगे!

महाराणा है बच्चा- बच्चा,
हर लड़की लक्ष्मीबाई है!
वीर शिवाजी के वंशज,
हम नई क्रांति लाएंगे!
'सोने की चिड़िया' को फिर से
ऊंचे गगन उड़ाएंगे!
भारत माँ के वीर सपूत हम
हम कभी नहीं घबराएंगे!


मातृभूमि है सबसे ऊपर,
सबको ये बतलाना है!
ऊंच नीच और जाति भेद को,
जड़ से हमे मिटाना है!
भारत की संस्कृति को,
फिर से पल्लवित कर दिखलाएंगे!
भारत माँ के वीर सपूत हम,
हम कभी नहीं घबराएंगे!

©सुधा सिंह




सोमवार, 20 मार्च 2017

एक परिणय सूत्र ऐसा भी...

 साथ रहते -रहते  दशकों बीत गए
पर न् मैंने तुम्हे जाना,
न् तुम् मुझे जान पाए।
फिर भी एक साथ एक छत के नीचे
जीए जा रहे है।
क्या इसी को कहते हैं परिणय सूत्र ?
नही यह केवल मजबूरी है...

तुम्हे भले नही , पर मुझे मेरा एकाकीपन नजर आता है।
यह एकाकीपन मुझे
सर्प की मानिंद डसता है!

जीवन् में तुमने क्या खोया क्या पाया
ये तुम्हे ही पता है ।
मुझे तुमने अपने जीवन का अंग नही बनाया ये मुझे पता है।

तुम्हारे काम का फल तुम्हे क्या मिलता है ये तुम्हे पता है।
पर तुमने  मुझे क्या दिया है
ये मुझे पता है।

यह मजबूरी नहीं तो और क्या है

तुमने तो केवल डराया है, धमकियां दी है।
और मैंने उन धमकियों को जहर की घूँट की तरह पिया है।
अपना कर्म करते करते तुम्हारे साथ एक अरसा जिया है।

अरे ओ संगदिल कभी तो सोचो ,
 क्या लाये था क्या ले जाओगे ?
जब् किसी को प्यार दोगे ,
तभी तो प्यार पाओगे !

मुझे जानने का एक बार प्रयास तो करो
मैं संगीनी हूँ तुम्हारी  ,
घर की सजावट का कोई  सामान नहीं।
गर्व और घमंड हूँ तुम्हारा
कोई गाली या अपमान नही।

 मजबूरी नहीं, एक स्वछंद जीवन की चाह है मुझे
 साथी बनना है तुम्हारा
क्योंकि प्यार तुमसे अथाह है मुझे....


( हमारे देश  में बहुत से परम्पराये ऐसी है जो सदियों से समाज को अपने मायाजाल में जकड़े हुए हैं।उनमे से एक यह भी है -जब् पति पत्नी में प्यार न् हो और वे समाज के रीती रिवाजो और बंधनो में उलझकर मजबूरी में एक दूसरे के साथ जीवन बिताने को विवश  होते हैं।जहाँ घर का मालिक और कर्ता धर्ता पति होता है और पत्नी केवल घर में सजाने की वास्तु मानी जाती है अथवा वह घर सँभालती है। उसे निर्णय लेने का कोई हक़ नही दिया जाता। इन पंक्तियों में उस स्त्री की दशा को दर्शाने का प्रयास किया है मैंने। )



©सुधा सिंह
चित्र :गूगल साभार