मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

मैं सत्य लिखती हूँ।


मैं.... परमपिता परमेश्वर का ,आभार लिखती हूँ।
जीवन को मधुर बनानेवाली ,खुशियों की बहार लिखती हूँ।
इनकार में  छुपा हुआ , इकरार लिखती हूँ।
सबला और अबला का ,संसार लिखती हूँ।
मैं जीत लिखती हूँ, मैं हार लिखती हूँ।
और शापित जीवन सार लिखती हूँ।

विश्वास को जो रौंदे, वो घात लिखती हूँ
मानवता हो शर्मसार ,वो आघात लिखती हूँ।
टूटे हुए दिलों के, जज़्बात लिखती हूँ
जब् आह निकले मुख से, वो हालात लिखती हूँ।

दर्द में लिपटा हुआ ,वह सत्य लिखती हूँ 
मन को जो करे घायल , वो असत्य लिखती हूँ
मैं अवसाद लिखती हूँ ,  आर्तनाद लिखती हूँ।

मैं शहर ही नहीं, मैं गाँव लिखती हूँ।
अमीरी जो दिखाये, वो ताव लिखती हूँ।
भाव ही नहीं ,मै स्वभाव लिखती हूँ।
आपसी रंजिश और मनमुटाव लिखती हूँ।

श्वसुर सास की मीठी, नोकझोक लिखती हूँ
बेटी- बहू पे लगी, रोकटोक लिखती हूँ।

मैं पीर लिखती हूँ, आँख का नीर लिखती हूँ।
सूई ही नही, मैं  शमशीर लिखती हूँ।
हताश हुए मन की, तस्वीर लिखती हूँ
बात हो गहरी, तो हो अधीर लिखती हूँ।

मैं लाज लिखती हूँ ,मैं सिर का ताज लिखती हूँ।
खोखली बातें नहीँ ,दिल का साज़ लिखती हूँ।

मन को जो छू जाये, वह अहसास लिखती हूँ।
जीना सिखा दे जो ,वो लमहा खास लिखती हूँ।

अंतर्मन में चल रही, मैं जंग लिखती हूँ।
गुजरा जो समय अपनों , के संग लिखती हूँ।

आकाश को जो नापे ,वो उड़ान लिखती हूँ।
वृद्धाश्रम में पड़े नातों का, अवसान लिखती हूँ।

जी हाँ!
मैं जीवन का हर रंग लिखती हूँ
मैं सत्य लिखती हूँ।

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

दोष किसका?


(इन पंक्तियों में मैंने उन बेटियों की व्यथा लिखने की कोशिश की है जिनका शराबी पिता  उन्हें घर में बंद करके न् जाने कहाँ चला गया  और उन  बच्चियों के शरीर में कीड़े पड़ गए इस घटना ने मुझे बहुत आहत किया।इसी प्रकार न् जाने ऐसे कितने ही लोग नशे की लत में पड़कर अच्छाई और बुराई के बीच का अंतर भुला देते हैं तथा गलत और अनुचित कार्य कर बैठते है।ऐसी घटनाएँ केवल निम्न वर्ग में ही नहीं होती अपितु कई धनाढ्य परिवारों और माध्यम वर्गीय परिवारो में भी यह आम है)


मुझको प्यारे पापा मेरे ,पर शराब उनको प्यारी है।
वो जब् भी घर में आ जाती ,पड़ती हम पर भारी है।
पापा पापा न् रह जाते ,जब वो हलक में उनके जाती है।
दुनिया उसकी दीवानी ,वो सबको नाच नचाती है।

मेरे पापा भी इसके ,चंगुल से बच नही पाये हैं
इसलिए तो पापा घर में, 'शराब सौतन' लाये हैं।
कभी कभी तो यही शराब, पापा को रंग दिखाती है
यहाँ -वहाँ से पिटवाती ,नाले से भेंट कराती है।

बच्चों की अठखेली उनको , जरा न् प्यारी  लगती है।
मम्मी से भी ज्यादा उनको, शराब न्यारी लगती है।
नौ बजते ही मेरे घर में , सन्नाटा छा जाता है।
हमें देखते ही उनकी आँखों में, गुस्सा आता है।

जब् तक हमको पीट न् लेते ,उनको नींद न् आती है।
माँ भी मेरी पिट- पिटकर ,मन मसोस रह जाती है।
माँ डर -डर कर हमें पालती,रोती है चिल्लाती है
अपनी इस सौतन के आगे ,कुछ भी कर न् पाती है।

खौफ था पापा का इतना कि, रूह भी काँपा करती थी।
भविष्य हमारा उज्जवल हो ,यह सोच के माँ सब सहती थी।
घर के बाहर रात बिताने ,कई बार मजबूर हुए ।
पड़ोसियों से पनाह मांगी ,घर से निकले डरे हुए।

कभी -कभी तो दिन में भी हम , घर में अपने कैद हुए।
रात - रात भर सिसक -सिसक कर, तकिये भी थे नम हुए।
ठिठुर- ठिठुरकर सर्द रात , हम छत पे गुजारा करते थे ।
पापा मेरे मस्त  होके 'एसी' में सोया करते थे।

बेटे से है प्यार उन्हें ,बस उसे दुलारा करते हैं।
बेटी सिर का बोझ है कहके, माँ को कोसा करते हैं।
कहते बेटी अपने घर जाये, उससे हम छुटकारा पाये।
अपना सारा दुःख और दर्द ,अपने घरवालों को बताये ।

हमसे न् कुछ लेना देना ,वो तो अब है हुई पराई।
चाहे वो सुख से जिए वहाँ पर, चाहे रहे सदा कुम्हलाई।
कितने घर बर्बाद है होते , लत जब् इसकी लगती है।
शासक इतनी बुरी है ये, अपनों में बैर कराती है।

जब् बोतल से बाहर आती, अपना  रंग दिखाती है।
छोटे हो या बड़े हो वो ,सब को बहुत रुलाती है।
जिस घर में भी पाँव धरे उसे तहस नहस कर जाती है।
इंसाँ इसको जब् भी पिए ,ये उसको पी जाती है।

समझ न् आता दोष है किसका
पापा का या इस शराब का
या मेरे बेटी होने का ????????

चित्र :
गूगल साभार



मंगलवार, 5 जुलाई 2016

रैट रेस









कलयुग अपनी चाल चल रहा , ठप्प पड़ा अनुशासन।
मासूमो का चीरहरण,करता रहता दु:शासन।
सच्चाई कलयुग में दासी, झूठ कर रहा शासन। 
गंधारी की आँख पे पट्टी ,है धृतराष्ट्र का प्रशासन।

चौसर का हैं खेल खेलते, जैसे मामा शकुनि।
धराशायी करके ये सबको ,जगह बनाते अपुनी।
छल करने में तेज बड़े ,चाहे घट जाये अनहोनी।
रैट रेस में हर कोई शामिल ,सांवली हो या सलोनी।
मानवता को ताक पे रखके जेबें भरते अपनी।
गैरों के घर फूंक फूंक कर आँख सेकते अपनी।


धूल झोंकते आँख में सबकी, साधु बनकर ठगते।
धोखेबाजी खून में इनकी, दोहरे मापदंड है रखते।
पड़ी जरुरत तलवे चाटे ,शर्म न इनको आती।
हैं ये भेड़िये अवसरवादी ,आत्मग्लानि नहीं होती।
चापलूसी और चाटुकारिता ,इनके दो हथियार हैं।
कुर्सी पर काबिज होने को, रहते ये तैयार हैं।


सुधा सिंह

शनिवार, 28 मई 2016

मन की बात

 इतना जान लें बस हमें कि हम कोई खिलौना नहीं ,
चोट लगती है हमें और दर्द भी होता है ।
हमारे भीतर भी भावनायें है जो आह बनकर निकलती हैं
टीस तब भी होती है ,जब मौसम सर्द होता है।

कलयुग में जन्म लिया है जरूर, पर सतयुगी विचार रखते हैं।
जिसे प्यार करते हैं उसे हृदय में छुपाकर रखते हैं।
जान उसपर निछावर है जो पाक दिल के मालिक हैं।
जो हमें प्यार करते हैं, हम भी बस उन्हें ही प्यार करते हैं।

इल्म है हमें कि कुछ ऐसे भी है जो हमसे द्वेष रखते हैं।
मुँह पर कहना तहजीब के ख़िलाफ़ हैं इसलिये पीठ पीछे हमारा जिक्र करते हैं।
महफ़िल में बढ़चढ़कर बोलना हमारी आदत नहीं ये दोस्त।
झूठ और आडंबर से खुद को कोसों दूर रखते हैं।

कलयुगी हथकंडे न चलाएं लोग, चाहत बस इतनी करते हैं।
इन सबसे खुदा बचाए हमें, बस इतनी प्रार्थना करते हैं।

शनिवार, 21 मई 2016

धुंध

किस ओर का रुख करूँ, जाऊँ किस ओर
मंजिल बड़ी ही दूर जान पड़ती है।

मन आज बड़ा ही विकल है, अकुलाहट का घेरा है
हवा भी आज न जाने क्यूँ ,बेहद मंद जान पड़ती है!

मेरे इर्द -गिर्द जो तस्वीरें हैं दर्द की,
ये आसमानी सितारों की साज़िश जान पड़ती है।

दूर तक पसरी हुई ये वीरानी,ये तन्हाईयाँ
सिर पर औंधी शमशीर जान पड़ती है।

आकाश भी आज साफ़ नजर नहीं आता,
मेरी किस्मत पे छायी ~धुंध जान पड़ती है।

यहाँ घेरा ,वहाँ घेरा,
हर ओर मकड़ जाल जान पड़ता है।

थम रही हैं सांसे,बदन पड़ रहा शिथिल,
मुझे ये मेरा आखिरी सफ़र जान पड़ता है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

होली


रंगों का त्योहार है होली,
खुशियाँ लेकर आता है।
हर एक घर ,हर गली, मोहल्ला,
रंगों से भर जाता है।

मस्ती में सब झूमते रहते,
भंग का रंग चढ़ जाता है।
बैर भाव सब भूल हैं जाते ,
दुश्मन को दोस्त बनाता है।

पिचकारी से रंग जब निकले ,
सब पर मस्ती छाती है।
ओढ़ चुनरिया सात रंग की,
माँ वसुधा मुस्काती है।

विरह की पीड़ा लिए विरहिणी,
मन ही मन घबराती है।
अबहु तक मेरे पिया न आये,
यह टीस उसे छल जाती है।

फ़ाग कहीँ यह बीत न जाए,
ये पीर उसे सताती है।
याद लिये अपने प्रिय की,
सुख - सपनों में खो जाती है।

होली ऐसा पर्व है प्यारा,
सबको एक बनाता है।
हो  हिन्दू ,हो सिख या मुस्लिम,
हर कोई इसे मनाता है।

लाल, गुलाबी, नीले, पीले,
रंग जब सब पर पड़ते हैं।
मिट जाती है दिलों की दूरी,
सब अपने से लगते हैं।

सुधा सिंह



शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

वसन्त








ऋतु वसंत की छटा निराली,
धरती पर फैली हरियाली।
पेड़ों पर गाये कोयलिया,
कलियों पर तितली मतवाली।

मदमस्त पवन गमका उपवन,
खुशबू से भीग रहा तन- मन।
धरती ने ओढ़ी पीली चुनरिया,
देख हुआ मदहोश गगन।

खेतों में बालें लहराएँ,
पक्षी पंचम स्वर में गायें।
कैसे पीछे रहे मोरनी,
वह भी अपनी तान लगाए।

आम की शाखें  बौर से भरी,
नई  कोंपले ओस से तरी।
पीली सरसों पास बुलाए,
सबके मन के तार बजाए।

मधुर -मधुर रस पीने को,
भँवरे कलियों पर मंडराएं।
सबको मस्त मगन करदे,
इसीलिये 'ऋतुराज' कहाये!


बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

वसंत आगमन(हाइकू)




 वसंत आगमन(हाइकू)

1
भोर की गूँज
निशा की रवानगी
मुर्गे की बाँग

2
भू पर हुआ
वसंत आगमन
शीत गमन

3
हर तरफ
सबके मुख पर
मुस्कान आई

4
वातावरण
में सुंदरता छाई
महकी धरा

5
सघन वन
चिड़ियों का घोंसला
खेतो की मेड़

6
 नई कोंपलें
उल्लास से मगन
खग विहग

7
 पुहुप खिले
कली- कली मुस्काई
बहार आई

8
वसुंधरा पे
नवयौवन आया
कोयल गाई

9
आम के बौर
खेतों में लहराई।
पीली सरसों

10
 चंचल मन,
महका कण- कण
घर प्रांगण।







शनिवार, 2 जनवरी 2016

उम्र अभी कच्ची है मेरी ,



बाल श्रम

रंगीन किताबें बस्तों की,
मुझे अपनी ओर खिंचती हैं
मेरा रोम - रोम आहें भरता ,
और रूह मेरी सिसकती है।

अपनी बेटी की झलक तुझको ,
क्या मुझमें दिखाई देती नहीं।
मत भूलो एक इनसान हूँ मैं,
कोई रोबो या मशीन नहीं।

कभी जन्मदिन कभी वर्षगाँठ की,
आये दिन दावत होती है।
कभी एक निवाला मुझे खिलाने ,
की क्यों इच्छा होती नहीं।

चौबीस घंटे कैसे मैं खटूँ,
मुझपर थोडी सी दया कर दो।
निज स्वार्थ छोड़ दो तुम अपना,
आँखों में थोड़ी हया भर लो।

उस खुदा ने मुझे छला तो छला,
क्यों तुम मुझसे छल करते हो।
उसने तकदीर बिगाड़ी है,
तुम भी निष्ठुरता करते हो।

ऊँचे महलों के वारिस तुम ,
मैं झुग्गी झोपड़ी से आई।
दो जून की रोटी की खातिर,
बचपन मैं पीछे छोड़ आई।

उम्र अभी कच्ची है मेरी ,
श्रम इतना मुझसे होता नहीं।
मुझे मेरा स्कूल बुलाता है,
क्यों तुम्हे सुनाई देता नहीं।

देखे हैं ख्वाब कई मैंने ,
हौसलों की मुझमे ताकत है।
पोछा बरतन मत करवाओ,
कुछ बन जाने की चाहत है।

पोछा बरतन मत करवाओ,
कुछ बन जाने की चाहत है......


सुधा सिंह

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

फिर एक जीवन बर्बाद हुआ

सुनसान अँधेरी गलियों में,
उस मैले - कुचैले चिथड़े पर
वह दीन - अभागा सोता है।
माँ के आँचल का अमृत,
वो क्या जाने क्या होता है ।

माँ की ममता न मिली उसको,
न पिता का सिर पर हाथ रहा।
न कोई उसका दोस्त बना,
न किसी का उसको साथ मिला।
खुली जो आंखें, छत न थी,
हर तरफ ही उसको घात मिला

फुटपाथ ही माँ की गोद बनी,
छद बन गया उसका आसमां।
धूप से प्रतिदिन लड़ता है वह,
और ठण्ड से होता रोज सामना।
बरसात उसे अपनी - सी लगे
जी चाहे कोई मिले 'अपना'।

पेट की आग बुझाने को,
कूड़े का ढेर ढूँढ़ता है।
कभी बटोरे लोहा -लक्कड़
बोतलें कभी बटोरता है।
नंगे पैरों से खाक छानता
मारा -मारा वह फिरता है।

कभी खिलौनों पर मन आता
कभी होटल में खाने का।
बर्गर और कोल्ड्रिंक का
और कभी सिनेमा जाने का।
लंबी गाड़ी का स्वप्न कभी
कभी बड़ा अफसर बन जाने का।

इक आस लिए  जगता सुबह
इक आस लिए सो जाता है
ख़ुशियों से भरा होगा जीवन
यह सोच के दिल बहलाता है।
पर खाली हाथ सदा होता
जीवन उसका कुम्हलाता है

ज्ञान उसे अक्षर का नहीं
पर  ख़्वाबों से अनजान नहीं
पंछी बनने की चाहत है पर
पंखों में ही जान नहीं।
फिर एक जीवन बर्बाद हुआ
पर किसीको इसका भान नहीं ।

फिर एक जीवन बर्बाद हुआ
पर किसीको इसका भान नहीं ।

सुधा सिंह