शनिवार, 15 अगस्त 2015

बेबसी

खाली पेट ,खाली जेबे,
हर शख़्श यहाँ मज़बूर है।
ढेरों सपने लेकर जन्मा,
फिर भी मंजिल दूर है।
थाली में न दाल, न रोटी
न सेब ,न ही अंगूर है
हर कोशिश नाकाम हो रही,
पर जीने को मजबूर हैं।
आत्महंता, कृषक बन गए
नेता अपने में चूर हैं।


निराश हो गई युवा पीढ़ी,
बन गई जैसे मूढ़ है।
कई नशे के आदी हो गए,
कईयो को चढ़ा सुरूर है।
राजकरण व्यापार बन चला,
नेता इसमे मशगूल हैं।
नीव देश की हो गई खोखली,
कोई दीमक लगा जरूर है।
जन्मा भारत की धरती पर
क्या यही मेरा कसूर है?






हक़ीकत (व्यंग्य )

समाज की कड़वी हकीकत का एक पहलू जहाँ लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता है वहीँ कुछ घरो में बेटी को पालना मजबूरी बन जाती है। बेटे को घर का चिराग मानकर उसकी हर गलती और हर गुनाह को नादानी समझकर छोड़ दिया जाता है। उसे व्यंग्य रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है  -

एक दिन एक जवान बेटे ने अपने पिता से कहा, " पिताजी !मुझे मेरी बहन का कलेजा चाहिए।"

पिताजी ,"बेटा !कुछ  दिन रुक जा।  अभी उसे अपने ससुराल से आ जाने दे।"

बेटा,"ठीक है पिताजी! तो अपना कालेजा ही दे दो।

पिताजी,"मैं अपना कलेजा दे दूँ ।बेटा! ऐसा मजाक नहीं करते ।तू चिंता क्यों करता है? मेरे मरने के बाद सब कुछ तेरा ही तो है।

बेटा,"और अगर मेरी बहन ने कुछ माँगा तो। "

पिताजी," वो कैसे मांगेगी? मैं सबकुछ तुझे ही दूँगा। वो तो पराई थी ।अपने घर चली गई ।जान छूटी।"

बेटा," हा पिताजी! वो मुझे अच्छी  नहीं लगती।

पिताजी,"क्या करे । तू अगर पहले पैदा होता तो  तेरी बहन को  मैं संसार में आने ही नहीं देता।
मुझे उसकी शादी के लिए कितना दहेज़ देना पड़ा।अच्छा हुआ जल्दी से उसकी शादी
हो गई।"

बेटा," पर पिताजी आप जल्दी क्यों नही मरते मुझे आपकी तस्वीर पर हार चढ़ाना है।

पिताजी,"बेटा ऐसा नहीं कहते ।अभी तो तू बहुत छोटा है  ।थोडा बड़ा होगा तो समझने लगेगा।जा ,जाकर सो जा । कुछ दिनों में तेरी बहन आ जायेगी। तब देखेंगे क्या करना है।"

बेटा," नहीं पिताजी !अभी मुझे अपने दोस्तों से मिलने जाना है।

पिताजी," रोज की तरह रात के दो बजे  मत आना। मुझे तेरी फ़िक्र होती है ।इसलिए जल्दी  आ जाना वरना मुझे कल की तरह फिर नीन्द नहीं आएगी।"

बेटा," अरे! आप सो जाओ न।मैं आ जाऊँगा।"
और वह नशे की हालत में धुत होकर  घर लौटा लेकिन.... अगली सुबह।










रविवार, 9 अगस्त 2015

जिंदगी-2

जिंदगी का फ़लसफ़ा भी अजीब है।
कभी सुनहरी धूप की तरह चमचमाती है।
तो कभी बिजली  बनकर कहर बरपाती है।
कभी छाँव बनकर अपनी शीतलता प्रदान करती है।
तो कभी बुरे दौर में साये की तरह साथ छोड़ देती है।

जिंदगी कभी माँ की तरह अपने आगोश में भर लेती है।
तो कभी आँसू बनकर दामन को भिगोती है।
कभी किलकारी बनकर आँगन में गूँजती है।
तो कभी अँधेरे में डराती भी है।

जिंदगी  आँखों में रंगीन सपने भर के अपने साथ लिए चलती है।
ये वो है जो हम सब की खाली किताब में अपनी कूची से इंद्रधनुषी रंग भरती है।
जिंदगी  कभी गरीब की झोपड़ी में भूख से बिलखती है।
तो कभी ऊँची मीनारों में ठहाके लगाती है।


रविवार, 2 अगस्त 2015

मातृभूमि आवाज दे रही


आन पड़ी तेरी आवश्यकता ,
उठ खड़ा हो अब देर न कर।
मातृभूमि आवाज दे रही ,
क्यों देखे तू इधर-उधर॥

अविश्वास, खोखलापन,
 पैर पसारे भ्रष्टाचार।
आतंकवाद,खौफ के साये ,
बढ़ता हुआ ये अत्याचार॥

लुटती लाज,मर रही निर्भया,
 बिकती लाशों का अम्बार।
इंसानियत दम तोड़ रही है,
 कर रही है अब हाहाकार॥

सूख गया आँखों का पानी,
 बढ़ी डकैती लूट- मार।
हैवानियत लालच का दैत्य,
बढ़ा रहा अपना आकार॥

रह गए सारे स्वप्न अधूरे,
 क्या वे कभी होंगे साकार।
इस भूमि का कर्ज़ चुकाने ,
खड़ा हो अब और भर हुँकार॥

भगत सिंह और राजगुरु की,
 एक बार है फिर दरकार।
उठो चंद्रशेखर ,बटुकेश्वर,
माटी की है ये ललकार॥

ज्वाला क्रांति की फिर भड़के,
 इस धरती की  यही पुकार।
अपने अपनों से मिल जाएं,
हर तरफ हो बस प्यार ही प्यार॥
हर तरफ हो बस प्यार ही प्यार....

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

ज़िंदगी


ज़िंदगी,तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।
तेरी मौजूदगी ,हर पल मुझे जीने का एहसास दिलाती  है।
तेरी विद्यमानता ,हर पल मेरा हौसला बढाती है।
जिंदगी तेरे बहुतेरे रुप
तू कभी छाँव है तो कभी है धूप।
तू है तो मुझमें स्पंदन है।
कभी खुशियां हैं, तो कभी क्रंदन है।
तू है तो मुझमें मैं जिंदा हूँ।
तू है तो मैं उड़ता हुआ परिंदा हूँ।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।


जिंदगी तू कभी बदरंग नज़र आती है।
तो कभी इंद्रधनुषी रंग में खिलखिलाती है।
तू कभी मार्गदर्शक सी लगी।
तो कभी भटकन सी नज़र आई।
तू कभी भव्य सी लगी।
तो कभी मामूली पड़ी दिखाई।
तू कभी  कड़ा इम्तिहान  लेती है।
तो कभी अव्वल अंको से पास भी कर देती है।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।




शनिवार, 18 जुलाई 2015

हम हंसने को मजबूर हो गए।




अश्रु  आखों  से  क्या  गिरे,
वो हमसे ही दूर हो  गए।
झूठी  हंसी  दिखाने  को,
हम भी  मजबूर  हो गए ।

वक्त  भी  बड़ा सितमगर है,
अपने  ही  मगरूर  हो गये।
हम पर प्यार लुटाने  वाले ,
न जाने क्यों  क्रूर  हो गये।

कैसा दस्तूर है  दुनिया  का ,
दिल  में  लाखों  गम  समेट कर  भी
हम हंसने  को मजबूर  हो  गए।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

एकता




आओ बच्चों  हम सब सीखे, जीने  का  एक  नया  सलीका।
हम सब अगर  एक  हो जाएँ ,  बाल न बांका  होगा  किसी का।

हाथी झुंड में  जब आता है, खूंखार  भेड़िया  घबराता है ।
है एकता  की  यह ताकत, आसमान  भी  झुक  जाता है ।

एक  बूंद  धरती पर गिरके ,क्षणभर में  मिट जाती है ।
मिले अगर  वह  और  बूंद  से, वह समुद्र  बन जाती है ।

 पुष्प अगर  अकेला  है तो,उपवन  नहीं महकते हैं ।
कई पुष्प जब मिल जाते हैं, माला  बनके  मुसकाते हैं।

एक  ऊंगली  कुछ  कर  नहीं  सकती,  पांचों  मिले तो क्या  है बात।
मिलकर मुट्ठी  जब बन जाते, खट्टे  हो दुश्मन  के  दांत ।

ये केवल  एक  शब्द नहीं, इसमें  असीम  ताकत का  वास।
हर बाधा  पर होगी  विजय, सब मिलकर  जब करें प्रयास ।

पुरखों  ने यह बतलाया  है, निसर्ग  ने  भी  सिखलाया है ।
साथ  सभी  जब आ जाएंगे,  ह्रास कभी  न  होगा  किसी का ।

आओ बच्चों  हम सब सीखे, जीने  का  एक  नया  सलीका।
हम सब अगर  एक  हो जाएँ ,  बाल न बांका  होगा  किसी का।

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

क्यों वह कहीं और रोप दी जाती है ?


क्यों वह  कहीं  और  रोप दी जाती है ?

जिस  बगिया में  वह अपनी  पहली  सांस लेती है ।
जिस उपवन  को  वह अपनी  खुशबू से  महकाती है ।
जिसे देखकर  माली के चेहरे पर मुस्कान छलक जाती है ।
क्यों वह कहीं और रोप दी जाती है ?

जिसे देखकर  चमन में बहार आती है ।
जिसे देखकर  भंवरों में  चंचलता  आती है ।
वह पूरी तरह खिल भी नहीं पाती है ।
फिर वह  क्यों  बेरहमी से  तोड़  दी जाती है ?

देखकर  जिसे ऋतु वसंत  को तरुणाई  आती है ।
देखकर  जिसे  बयार मंद  - मंद  मुस्काती है ।
क्यों उसकी  खुशियां  जमाने  को रास नहीं  आती हैं?
क्यों वह अपनी  ही  माटी  से  उखाड़  दी जाती है?

ये कैसी रीति है कि
उसे अपना घर  छोड़ना ही पड़ता है ।
उसे अपने  बाबुल से बिछड़ना ही पड़ता है ।
वह अपने छोड़ , दूसरों के सपने सजाती है ।
फिर  भी क्यों  वह पराई  कही जाती है ?

आखिर क्यों  वह  कहीं और रोप दी जाती है? ............





शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

वो शख्स कहाँ से लाऊँ ! !


दिल अपना  चीरकर किसे दिखाऊँ,
जो इसे समझ सके,
वो शख्स कहाँ से लाऊँ ! !
जो  मेरे  लफ्ज़ों को,  तराज़ू में न तोले
जो मुझे  समझ  ले, मेरे  बिन बोले ॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो मुझपर ,
अपना अटूट विश्वास दिखा सके ॥
जो तहेदिल से बेझिझक,
मुझे अपने गले से लगा  सके॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो  मेरे एहसास  का एहसास  कर सके,
जो सदैव ,
मुझे अपनी  कलयुगी निगाहों  से न  देखे॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
जो हर पल मुझे ,
अपने साथ  होने  का  एहसास  दे॥
वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !
वह
जो  मेरी  उखड़ती हुई सांसों को,
नवजीवन  की आस दे॥
 वह शख्स  कहाँ से लाऊँ ! !

बुधवार, 1 जुलाई 2015

बने रहें हम सब इनसान


प्रभु अरज मेरी  बस इतनी -सी है ,
बने  रहें  हम सब इनसान ॥
नजर में  कोई  खोट न हो,
न करें  किसी  का भी  अपमान ॥

करो कृपा  सही  राह  पकड़ लें,
औ' चल पाएं हम सीना तान ॥
न कभी किसी को दुखी करें ,
बना रहे सबका सम्मान॥

लालच अन्याय और अत्याचार,
मिट जाए इनका नाम निशान ॥
हमको इस काबिल देव बना ,
चोटिल न हो  हमारा स्वाभिमान ॥

न नीयत कभी बिगड़ने पाए,
सबको तू  इतना  दे भगवान ॥
 प्रभु अरज  मेरी  बस इतनी सी है ,
 बने रहे  हम सब इनसान ॥