शनिवार, 15 अगस्त 2015

हक़ीकत (व्यंग्य )

समाज की कड़वी हकीकत का एक पहलू जहाँ लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता है वहीँ कुछ घरो में बेटी को पालना मजबूरी बन जाती है। बेटे को घर का चिराग मानकर उसकी हर गलती और हर गुनाह को नादानी समझकर छोड़ दिया जाता है। उसे व्यंग्य रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है  -

एक दिन एक जवान बेटे ने अपने पिता से कहा, " पिताजी !मुझे मेरी बहन का कलेजा चाहिए।"

पिताजी ,"बेटा !कुछ  दिन रुक जा।  अभी उसे अपने ससुराल से आ जाने दे।"

बेटा,"ठीक है पिताजी! तो अपना कालेजा ही दे दो।

पिताजी,"मैं अपना कलेजा दे दूँ ।बेटा! ऐसा मजाक नहीं करते ।तू चिंता क्यों करता है? मेरे मरने के बाद सब कुछ तेरा ही तो है।

बेटा,"और अगर मेरी बहन ने कुछ माँगा तो। "

पिताजी," वो कैसे मांगेगी? मैं सबकुछ तुझे ही दूँगा। वो तो पराई थी ।अपने घर चली गई ।जान छूटी।"

बेटा," हा पिताजी! वो मुझे अच्छी  नहीं लगती।

पिताजी,"क्या करे । तू अगर पहले पैदा होता तो  तेरी बहन को  मैं संसार में आने ही नहीं देता।
मुझे उसकी शादी के लिए कितना दहेज़ देना पड़ा।अच्छा हुआ जल्दी से उसकी शादी
हो गई।"

बेटा," पर पिताजी आप जल्दी क्यों नही मरते मुझे आपकी तस्वीर पर हार चढ़ाना है।

पिताजी,"बेटा ऐसा नहीं कहते ।अभी तो तू बहुत छोटा है  ।थोडा बड़ा होगा तो समझने लगेगा।जा ,जाकर सो जा । कुछ दिनों में तेरी बहन आ जायेगी। तब देखेंगे क्या करना है।"

बेटा," नहीं पिताजी !अभी मुझे अपने दोस्तों से मिलने जाना है।

पिताजी," रोज की तरह रात के दो बजे  मत आना। मुझे तेरी फ़िक्र होती है ।इसलिए जल्दी  आ जाना वरना मुझे कल की तरह फिर नीन्द नहीं आएगी।"

बेटा," अरे! आप सो जाओ न।मैं आ जाऊँगा।"
और वह नशे की हालत में धुत होकर  घर लौटा लेकिन.... अगली सुबह।










रविवार, 9 अगस्त 2015

जिंदगी-2

जिंदगी का फ़लसफ़ा भी अजीब है।
कभी सुनहरी धूप की तरह चमचमाती है।
तो कभी बिजली  बनकर कहर बरपाती है।
कभी छाँव बनकर अपनी शीतलता प्रदान करती है।
तो कभी बुरे दौर में साये की तरह साथ छोड़ देती है।

जिंदगी कभी माँ की तरह अपने आगोश में भर लेती है।
तो कभी आँसू बनकर दामन को भिगोती है।
कभी किलकारी बनकर आँगन में गूँजती है।
तो कभी अँधेरे में डराती भी है।

जिंदगी  आँखों में रंगीन सपने भर के अपने साथ लिए चलती है।
ये वो है जो हम सब की खाली किताब में अपनी कूची से इंद्रधनुषी रंग भरती है।
जिंदगी  कभी गरीब की झोपड़ी में भूख से बिलखती है।
तो कभी ऊँची मीनारों में ठहाके लगाती है।


रविवार, 2 अगस्त 2015

मातृभूमि आवाज दे रही


आन पड़ी तेरी आवश्यकता ,
उठ खड़ा हो अब देर न कर।
मातृभूमि आवाज दे रही ,
क्यों देखे तू इधर-उधर॥

अविश्वास, खोखलापन,
 पैर पसारे भ्रष्टाचार।
आतंकवाद,खौफ के साये ,
बढ़ता हुआ ये अत्याचार॥

लुटती लाज,मर रही निर्भया,
 बिकती लाशों का अम्बार।
इंसानियत दम तोड़ रही है,
 कर रही है अब हाहाकार॥

सूख गया आँखों का पानी,
 बढ़ी डकैती लूट- मार।
हैवानियत लालच का दैत्य,
बढ़ा रहा अपना आकार॥

रह गए सारे स्वप्न अधूरे,
 क्या वे कभी होंगे साकार।
इस भूमि का कर्ज़ चुकाने ,
खड़ा हो अब और भर हुँकार॥

भगत सिंह और राजगुरु की,
 एक बार है फिर दरकार।
उठो चंद्रशेखर ,बटुकेश्वर,
माटी की है ये ललकार॥

ज्वाला क्रांति की फिर भड़के,
 इस धरती की  यही पुकार।
अपने अपनों से मिल जाएं,
हर तरफ हो बस प्यार ही प्यार॥
हर तरफ हो बस प्यार ही प्यार....

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

ज़िंदगी


ज़िंदगी,तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।
तेरी मौजूदगी ,हर पल मुझे जीने का एहसास दिलाती  है।
तेरी विद्यमानता ,हर पल मेरा हौसला बढाती है।
जिंदगी तेरे बहुतेरे रुप
तू कभी छाँव है तो कभी है धूप।
तू है तो मुझमें स्पंदन है।
कभी खुशियां हैं, तो कभी क्रंदन है।
तू है तो मुझमें मैं जिंदा हूँ।
तू है तो मैं उड़ता हुआ परिंदा हूँ।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।


जिंदगी तू कभी बदरंग नज़र आती है।
तो कभी इंद्रधनुषी रंग में खिलखिलाती है।
तू कभी मार्गदर्शक सी लगी।
तो कभी भटकन सी नज़र आई।
तू कभी भव्य सी लगी।
तो कभी मामूली पड़ी दिखाई।
तू कभी  कड़ा इम्तिहान  लेती है।
तो कभी अव्वल अंको से पास भी कर देती है।
इसलिए तुझे हक है कि तू मुझे आजमाये।
तुझे हक है कि तू मेरे आँगन में मुस्कराये।




शनिवार, 18 जुलाई 2015

हम हंसने को मजबूर हो गए।




अश्रु  आखों  से  क्या  गिरे,
वो हमसे ही दूर हो  गए।
झूठी  हंसी  दिखाने  को,
हम भी  मजबूर  हो गए ।

वक्त  भी  बड़ा सितमगर है,
अपने  ही  मगरूर  हो गये।
हम पर प्यार लुटाने  वाले ,
न जाने क्यों  क्रूर  हो गये।

कैसा दस्तूर है  दुनिया  का ,
दिल  में  लाखों  गम  समेट कर  भी
हम हंसने  को मजबूर  हो  गए।