सोमवार, 9 अप्रैल 2018

छूना है मुझे चाँद को


छूना है मुझे चाँद को


सोचती हूँ कि कर लूँ, मैं भी
कुछ मनमानियाँ , थोड़ी नदानियां
उतार फेंकू, पैरों में पड़ी जंजीरे
बदल दूँ, अपने हाथों की अनचाही लकीरें
तोड़ दूँ, दकियानूसी दीवारों को
उन रिवाजों , उन रवायतों को
जो मेरे पथ में चुभते है कंटकों की तरह
क्यों हैं सारी वर्जनाएँ केवल मुझपर लादी
चाहती हूं मैं , बस थोड़ी- सी आजादी
मैं एक स्त्री हूँ, भक्षण-भोग का कोई सामान नहीं
हूँ, उन जैसी ही एक इंसान,कोई पायदान नहीं

सोचती हूँ भर लूँ, मैं भी अपनी उड़ान
और पा लूँ अपना मनचाहा आसमान
छूना है मुझे चाँद को, तारों को,
ऊँची - ऊँची मीनारों को
चाहिए मुझे भी मेरी  एक आकाशगंगा
चमकीला, दूधिया, रंगबिरंगा
दे दो मुझे! मेरे वो पर
जो कतर दिए तुमने बेरहमी से
लोक - लाज के डर से
बचाने के लिए मुझे
उस गंदी नजर से
जो तैयार बैठे हैं मुझे नोच खाने के लिए
अपनी हवस मिटाने के लिए
समझकर मुझे केवल जिस्‍म का एक टुकड़ा
गिद्ध के सदृश पल -पल ताक लगाए
बैठे हैं वो नजरें  गड़ाए कि
एक शिकार,  बस हाथ लग जाए....

सुधा   🦋 

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

तन्हाई....






ये सिंदूरी, सुरमई शाम का बहकता आँचल
फलक से झरती ये अलमस्त चाँदनी
रूह तक पहुँचता एहसास ये रूमानी
नदिया की बहती ये नीरव रवानी
हौले से कुछ कह जाए..

ये कशिश, ये खुमारी और ये दयार
कानों में चुपके से कुछ कहती फिर
सर्रर् ... से बह जाती ये मतवाली बयार
तुम्हारी गर्म साँसों की ये मदमस्त खुशबू
मुझे बेखुद- सी किए जाए..

मेरी जुल्फों से खेलती ये उंगलियाँ तुम्हारी
तुम्हारी मोहब्बत में दरकती ये साँसे हमारी
बस.. मैं, और तुम, और उफ्फ...
इस खूबसूरत तन्हाई का ये आलम
डर है कहीं हमारी जान ही न ले जाए...


तनहाई मतलब
[सं-स्त्री.] - 1. तनहा होने की अवस्था; अकेलापन; एकाकीपन 2. निर्जन या एकांत स्थान।

शनिवार, 24 मार्च 2018

बेवफा मोहब्बत



न मालूम था कि तुम भी निकलोगे उन जैसे ही ..
खोल दी थी अपने दिल की किताब मैंने तुम्हारे सामने
उसके हर सफहे पर लिखी हर बात को गौर से पढ़ा था तुमने..
जिसमें लिखे थे मेरे सारे जज्बात, सारे एहसास...

वो स्याह, बदरँग, मैला - सा पन्ना भी तो तुमने देखा था जिसे मैंने सबसे छुपा कर रखा था...
पर बेहिचक तुम्हारे सामने मैंने उसे भी तो रखा था
और तुमने मुझे तसल्ली दी थी कि
तुम मेरे हो, कद्र है तुम्हें मेरी, मेरे एहसासों की, मेरी भावनाओं की...

फिर ऐसा क्या हुआ..
फिर ऐसा क्या हुआ कि..
तुमने मुझे रुसवा करने में जरा भी कसर न छोड़ी.
मखौल उड़ाया मेरा , मेरे अहसासों का ..
शर्मिंदा किया , उनके ही सामने जिसने मुझे जख्म दिए थे और कई बार उन जख्मों को कुरेद कर हरा भी किया था.. .
फिर मलहम भी लगाया था....
मलहम लगने से मुझे आत्मीयता का एहसास तो होता....
पर.. फिर भी न जाने क्यों घाव और गहरा होता जाता और पककर मवाद निकलने लगता ...

मलहम मिलावटी था बड़ी देर से अहसास हुआ
अमृत में जहर होगा कहाँ जानती थी मैं ...
मैं टूट रही थी भीतर ही भीतर..
ढूँढ रही थी एक सहारा और फिर मिल गए थे तुम
मैंने पाया था तुममें
वो अपनापन , वो हमसफर, वो राजदार .
पर मेरे अगाध प्रेम का ये सिला मिलेगा
नहीं जानती थी मैं ..
नहीं जानती थी मैं कि तुम भी खेलोगे
उनकी ही तरह
उनकी ही तरह वेदनाओं से उपहृत करोगे मुझे
तुम्हें खेलना ही था तो कह देते..
मैं ही ला देती कोई खिलौना
जी भर के खेल लेते...
तुमने मेरे जज्बात ही क्यों चुने ,
क्यूँ मेरे प्रेम से विश्वासघात किया
तुमने भी वही दिया जो बाकियों से मिला था मुझे .
फिर क्या अंतर है उनमें और तुममें.
आख़िर तुम निकले उनमें से ही एक... क्यों????
क्या है कोई उत्तर..???



रविवार, 18 मार्च 2018

माना पतझड़ का मौसम है.




घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा
तू हृदय घट में भरले उजास
मत पीछे हट, तू कर प्रयास

है पथिक तू, न ये भूलना
करने तुझे कई काज हैं
वो मानव ही तो मानव हैं
जिसमें उम्मीद और आस है

माना पतझड़ का मौसम है
 पर ये मौसम भी बीतेगा
तूफान तेरे पुरुषार्थ से
फिर दुबकेगा,  तू जीतेगा
और आसमान के आँचल से
फिर धुंध कुहासा छिटकेगा

बासंती लहरें आएँगी
कलियाँ कलियाँ मुस्काएँगी
कूकेगी प्यारी कोयलिया
जीवन के गीत सुनाएँगी
         
माना कि सफर आसान नहीं
है कौन जो परेशान नहीं
हर मेहनतकश, हर अभीत से
आँधियाँ भी दहला करती है

प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो तो भी
निर्वेद न हो, न शिथिल पड़ो
उम्मीद का दामन थाम कर
यलगार करो और आगे बढ़ो
रोशन होगी,  दिल की मशाल
 फिर देखना होगा कमाल
 फिर  देखना होगा कमाल......



बुधवार, 7 मार्च 2018

परिक्रमा





परिक्रमा

कौन नहीं करता परिक्रमा?
सब करते हैं
और जरूरी भी है परिक्रमा
परंतु अपनी ही धुरी से
जैसे चांद करता है धरती की परिक्रमा.
धरती करती है सूर्य की परिक्रमा.
और अनेकों ग्रह करते हैं सूर्य की परिक्रमा
ताकि वह अपनी धुरी से भटक ना जाएं.
दिग्भ्रमित न हो जाएं.
सब की सीमाएं होती हैं
सीमाओं के परे जाने से,
अतिक्रमण करने से
होता है सब को कष्ट
इसलिए जरूरी है परिक्रमा
पर अपनी ही धुरी में रहते हुए
ताकि न हो पथभ्रष्ट.

हम भी करते हैं परिक्रमा
पर अपनी लालसाओ की
अपनी चाहतों, इच्छाओं की,
अपनी जरूरतों की, चिंताओं की,
अपनी सांसारिक परेशानियों की,
यही नहीं वरन्
लोगों की सोच की,
उनकी कही बातों की

पर नहीं करते परिक्रमा
अपनी स्वयं की ,
अपने आत्मन की
नहीं करते परिक्रमा
अत्मचिंतन की, आत्ममंथन की

मिटाते हैं भूख अपने खूबसूरत से तन की,
अपनी अनवरत कार्यरत जेहन की,
पर भूल जाते हैं कि
भूख लगती है आत्मा को भी,
अंतःकरण को भी
उसकी भूख को कौन मिटाएगा?
क्या कोई दूसरा आएगा?
क्या कोई और आकर
हमें खुद से मुखातिब करवाएगा
या फिर कोई शुभ मुहुर्त निकलेगा....
यह नहीं होगा ...
हाँ
परिक्रमा जरूरी है
पर.. सबसे पहले स्वयं की
ताकि कुछ और पाने से पहले
पा सकें ख़ुद को ...
जान सके खुद को..
और पहचान सकें ख़ुद को!