खर पतवार
(प्रतीकात्मक कविता)
इक माली ने मदहोशी में
बीज एक बो दिया था!
न ही मिट्टी उर्वर थी,
न बीज का दर्जा आला था!
शीत ऋतु भी चरम पर थी
औ लग गया उसको पाला था!
माली लापरवाह बड़ा था
था जोश बड़ा जवानी का!
न सिंचन पर ध्यान दिया
न उचित खाद का प्रबंध किया!
नर्सरी की साज सज्जा को
निहारने में मस्त था!
अन्य पौधों की विक्री में
वह काफी ज्यादा व्यस्त था!
माटी ने भी अपनी तो ममता नहीं लुटाई
अपने ही जाए पर!
खाद पानी की खातिर
वह भी तो निर्भर थी माली पर!
बीज ने अब अंगड़ाई ली
और अंकुर उसके फूट पडे!
कमजोरी और दुर्बलता से
रहा न जाता उससे खड़े!
जैसे तैसे बड़ा हुआ कुछ
पर खर पतवार की भांति था!
पातें कुछ मुरझाई सी
और डाले टेढ़ी मेढ़ी थी!
कांतिहीन, निस्तेज था वह
और काया में दुर्बलता थी
पर माली होशियार बड़ा था
एक भोला ग्राहक फंसा लिया!
कुछ चंद रुपयों की खातिर
उसको माली ने बेच दिया!
वह भोला ग्राहक बाट जोहता
कभी तो इसको फल होंगे!
खाद पानी देता रहता कि
आज नहीं तो कल होंगे!
बीत गए थे काफी अरसे
इंतजार वह फल का करता!
पर बिन आशा और बिना लक्ष्य के
साँसे बीज लिया करता !
आत्मशक्ति की कमी बहुत थी
कोशिश भी नाकाफी थी!
फल वह कभी नहीं दे पाया
काम नहीं वह किसी के आया!
अपने भोलेपन पर ग्राहक
बहुत बहुत पछताया था!
खाद दिया था, सींचा था
प्यार से उसको पाला था!
फेंक नहीं सकता था उसको
वह अच्छे दिलवाला था!