सोमवार, 5 दिसंबर 2016

यदा- कदा....



1:
पास होकर भी ,
तेरे पास होने का, 
अहसास नही होता।
न् जाने ये कैसी दूरी है ,
हम दोनों के दरमियाँ।
2: 
दिल तोड़ना और साथ छोड़ना 
तो ज़माने का दस्तूर है ऐ दोस्त।
कायल तो हम तुम्हारे तब होंगे , 
जब् तुम् साथ देने की कला सीख लोगे ।
3:

अपनों को ठुकराना ,
गैरों को अपना बताना 
और इस बात पर इतराना
कि जहाँ में चाहने वाले बहुत हैं तेरे।

ऐ दोस्त,
क्या तू इतना भी नही जानता
कि हाथी के दाँत खाने के और 
दिखाने के और होते हैं।




शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

सूरज फिर निकलेगा ,फिर चमकेगा।

संध्या चाहे कितनी भयावह क्यों न् हो।
सूरज फिर निकलेगा ,फिर चमकेगा।

संध्या तो संध्या है जब्  भी आती है
अपने साथ काली स्याह रातों
का पैगाम  ही लाती है
और सबके खुशनुमा जीवन में
भयावह अँधेरा
और गमगिनियां भर जाती है।
अपना विद्रूप
और अभद्र रंग दिखाती है।
कृष्ण पक्ष में तो और भी घनघोर हो जाती है।

पर सूरज क्योंकर डरेगा,
वह फिर निकलेगा ।
अपनी सुन्दर रश्मियों से
प्राकृतिक सुषमा को बढ़ाएगा।
सृष्टि को साक्षी मानकर अपने शौर्य को फिर प्राप्त करेगा।
अर्णव की बूंदें भी नया उल्लास  भरकर हिलोर मारेंगी।
और  एक नया जोश भरकर सबको सुधापान कराएंगी।
मदमस्त बयार अपना राग अलापेगी।
पक्षी अपना नितु नृत्य पेश करेंगे।

और तब संध्या और स्याह भयावह रात्रि को सती  होना पड़ेगा।
क्योंकि
सूरज फिर निकलेगा।


तलाश

तलाश
कुछ समझ नही आता जिंदगी....
तेरी गिनती दोस्तों में करूँ
या दुश्मनों में !
चिड़ियों की मानिंद दर रोज,
घोंसलों से दाने की खोज में निकलना।
फिर थक हार कर,
अपने नीड़ को वापस लौटना।
क्या केवल इसे ही नियति कहते हैं।
क्या केवल यही जिंदगी है।
आखिर तेरे कितने रंग हैं!
पर,
ऐ जिंदगी...
अब बहुत हो चुका.......
मैं अपने लिए थोड़ा वक़्त चाहती हूँ।
मैं थोड़ा सुकून चाहती हूँ
खुद को तलाशना चाहती हूँ।
खुद को पाना चाहती हूँ।
©सुधा सिंह~~

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

आखिर कितने खुदा......

तू तो खुदा है
तेरे पास  बहुतेरे काम होंगे ....
लाखों करोड़ों सवाल होंगे...
इसलिए हमारी छोटी- छोटी मुश्किलों के लिए तेरे पास समय नहीं ,
पर उनका क्या ??????
जो मेरी तरह साधारण मनुष्य है ।
हाड़ - मास के पुतले हैं
फिर भी खुद को खुदा समझते हैं।
हमारे छोटे -मोटे सवालों के जवाब देना...
उन्हें जरुरी नहीं लगता।
उन्हें अपनी शान में गुस्ताखी लगती है।
पर अपनी ही तरह दूसरे खुदाओं की शान में कसीदे पढ़ते हैं।
उनके गुणगान करते हैं.......
मुझे समझ नही आता....
तेरे अलावा और कितने खुदा हैं इस धरती पर प्रभु?
मुझे किसकी शान में झुकना है?
कुछ और भले नहीं, पर इसी सवाल का जवाब मुझे दे दो  प्रभु।
मेरा इतना हक़ तो बनता ही है।
मुझे इंतजार है तेरे जवाब का...
तेरे इन्साफ का......

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

मैं सत्य लिखती हूँ।


मैं.... परमपिता परमेश्वर का ,आभार लिखती हूँ।
जीवन को मधुर बनानेवाली ,खुशियों की बहार लिखती हूँ।
इनकार में  छुपा हुआ , इकरार लिखती हूँ।
सबला और अबला का ,संसार लिखती हूँ।
मैं जीत लिखती हूँ, मैं हार लिखती हूँ।
और शापित जीवन सार लिखती हूँ।

विश्वास को जो रौंदे, वो घात लिखती हूँ
मानवता हो शर्मसार ,वो आघात लिखती हूँ।
टूटे हुए दिलों के, जज़्बात लिखती हूँ
जब् आह निकले मुख से, वो हालात लिखती हूँ।

दर्द में लिपटा हुआ ,वह सत्य लिखती हूँ 
मन को जो करे घायल , वो असत्य लिखती हूँ
मैं अवसाद लिखती हूँ ,  आर्तनाद लिखती हूँ।

मैं शहर ही नहीं, मैं गाँव लिखती हूँ।
अमीरी जो दिखाये, वो ताव लिखती हूँ।
भाव ही नहीं ,मै स्वभाव लिखती हूँ।
आपसी रंजिश और मनमुटाव लिखती हूँ।

श्वसुर सास की मीठी, नोकझोक लिखती हूँ
बेटी- बहू पे लगी, रोकटोक लिखती हूँ।

मैं पीर लिखती हूँ, आँख का नीर लिखती हूँ।
सूई ही नही, मैं  शमशीर लिखती हूँ।
हताश हुए मन की, तस्वीर लिखती हूँ
बात हो गहरी, तो हो अधीर लिखती हूँ।

मैं लाज लिखती हूँ ,मैं सिर का ताज लिखती हूँ।
खोखली बातें नहीँ ,दिल का साज़ लिखती हूँ।

मन को जो छू जाये, वह अहसास लिखती हूँ।
जीना सिखा दे जो ,वो लमहा खास लिखती हूँ।

अंतर्मन में चल रही, मैं जंग लिखती हूँ।
गुजरा जो समय अपनों , के संग लिखती हूँ।

आकाश को जो नापे ,वो उड़ान लिखती हूँ।
वृद्धाश्रम में पड़े नातों का, अवसान लिखती हूँ।

जी हाँ!
मैं जीवन का हर रंग लिखती हूँ
मैं सत्य लिखती हूँ।