मंगलवार, 25 अगस्त 2015

वह 'नर' ही 'नर' कहलाता है

जो पीर पराई समझ सके,
संग ईश्वर उसके रहता है।
निज स्वार्थ त्याग कर जो अपना,
दूजे का दर्द समझता है।
है मानस वह बड़ा महान,
जो परहित सदा सोचता है

संताप समझके गैरों का,
नम आँखे जिसकी हो जाये
इंसान असल में है वो ही,
जो तूफां से टकरा जाये।
पौरुष जिसका हो अति बली,
वह महापुरुष बन जाता है।

बाधा स्वयं दूर हो जाती,
वह जोश में जब आ जाता है।
दृढ़ इच्छा शक्ति है जिसमें,
वह 'नर' ही 'नर' कहलाता है।
आसमान नतमस्तक होता,
और पहाड़ झुक जाता है।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

हर क्षण जीती हूँ मैं।


हर क्षण जीती हूँ मैं।

ज़र्रा ज़र्रा बिखरती हूँ मैं,
ज़र्रा ज़र्रा सिमटती हूँ मैं,
न जानू मैं  ,
कैसी कसक है ये !
न जानू मैं  ,
कैसा ये अहसास है!
क्षण- क्षण मेरी हस्ती ही
मुझे देती है चुनौती,
हौसले में दम और
उखड़ती सांसों में भरके प्राण ,
प्रतिपल जीवन से लड़ती हूँ मैं।
हर कसौटी को पार करती,
निराशा को मात देती ,
आशा को साथ लिए चलती हूँ मैं।
 हाँ ! हर क्षण जीती हूँ मैं।


गुरुवार, 20 अगस्त 2015

निज स्वरुप पहचान न पाया


निज स्वरुप पहचान न पाया
वक़्त ने ऐसा खेल रचाया।
देखके दुनिया का आडम्बर ,
नकली चोला मैं ले आया।।
इस चोले में  तपन है इतनी ,
यह मुझको अब समझ है आया।
देह मेरी क्यों जलती प्रतिदिन,
जल्दी मैं क्यों जान न पाया।।

देखके दूजे  खरबूजे को,
खरबूजे ने  रंग अपनाया।
पर जब पूछा इसका कारण,
भेद वह अपना खोल न पाया।।
 उसपर भी था चढ़ा आडम्बर,
 उसने अतःयह रूप अपनाया।
 कसर न छोड़ी छला सभी को,
 आस पास भ्रम जाल बिछाया।।

आँख मूँद ली सच्चाई से,
अच्छाई को दूर भगाया।
पीतल को समझा था सोना,
चमक गई तब मैं पछताया।।
अपनों को अपना न समझा,
सदा उन्हें फटकार लगाया।
उम्मीद लगाई थी सबसे ,
पर दूजा कोई काम न आया।।

 इंसानियत बदनाम हो गई,
 वहशीपन का चढ़ा जो साया।
 बुरे करम थे मेरे लेकिन,
 कलयुग पर इल्जाम लगाया।।
 दुनिया को समझा था पागल,
 पर मैं ही पागल कहलाया।

दुनिया देती रहेगी झांसे ,
अब यह मर्म समझ में पाया।।
नकली चोला देगा धोखा,
पहले क्यों मैं जान न पाया।
ऐसे करम किये क्यों मैंने,
ग्लानि से है मन भर आया।।

निज स्वरुप पहचान गया अब,
चाहे जितना देर लगाया।
हुई भले ही देर सही,
पर मुझको है अब होश तो आया।।
हे ईश्वर अब साथ दे मेरा
गर मैंने सही मार्ग अपनाया।।




सोमवार, 17 अगस्त 2015

यथार्थ

यथार्थ के धरातल पर ,
कोई उतरना नहीं चाहता।
कोई अपना वास्तविक रूप,
दिखाना नहीं चाहता।
जब तक चेहरे पर
लीपा - पोती नहीं हो जाती
तब तक घरों से निकलना नहीं चाहता।
कहीं कोई असलियत भांप न ले ?
कहीं उसका विकृत रूप,
सामने न आ जाये ?
कहीं उसका असली रंग ,
लोगों को उससे दूर न कर दे?
कहीं उसका खेल,
लोगों में घृणा न भर दे?
ऐसा होने पर वह
नकली मुस्कुराहट किसे दिखायेगा?
लोगों को बेवकूफ़ कैसे बनाएगा?
उसकी इच्छाओं की पूर्ति कैसे होगी?
उसकी दूषित मानसिकता की
 संतुष्टी कैसे होगी?
अतः असली चेहरा छुपाना ही बेहतर है।
लोगों को भ्रमित करना ही बेहतर है।
आज लोगों की मानसिकता यही है।
पर हमें समझना होगा कि ,
यह कहाँ तक सही है?




शनिवार, 15 अगस्त 2015

बेबसी

खाली पेट ,खाली जेबे,
हर शख़्श यहाँ मज़बूर है।
ढेरों सपने लेकर जन्मा,
फिर भी मंजिल दूर है।
थाली में न दाल, न रोटी
न सेब ,न ही अंगूर है
हर कोशिश नाकाम हो रही,
पर जीने को मजबूर हैं।
आत्महंता, कृषक बन गए
नेता अपने में चूर हैं।


निराश हो गई युवा पीढ़ी,
बन गई जैसे मूढ़ है।
कई नशे के आदी हो गए,
कईयो को चढ़ा सुरूर है।
राजकरण व्यापार बन चला,
नेता इसमे मशगूल हैं।
नीव देश की हो गई खोखली,
कोई दीमक लगा जरूर है।
जन्मा भारत की धरती पर
क्या यही मेरा कसूर है?