रविवार, 19 मार्च 2017

अपनापन





दादा दादी को पोते पहचानते नहीं
नाना नानी को नवासे अब जानते नहीं

न जाने कैसा  कलयुगी  चलन है ये
कि रिश्ते इतने बेमाने हो गए!
 और ताने  बाने  ऐसे  उलझे
कि अपने  सभी बेगाने  हो गए!

कद्र रिश्तो की सबने बीसराई है आज!
प्यार  अनुराग  और  स्नेह  के  बंधन  पर
जाने कैसी  गिरी है  गाज!


न  भाव  है  सम्मान  का, ना ही कोई लिहाज  !
पछुआ ऐसी  चल पड़ी कि
बढ़ गई दूरियां और  बदला सबका मिजाज   !

परिचित भी अब अपरिचित से लगते पड़ते हैं
अतिथि अब देव नहीं यमराज जान पड़ते हैं
"जैसे तैसे पीछा छूटे" मन में यही विचार उठते हैं!
न जाने क्यों लोग दूसरों से इतना कटे कटे से रहते हैं!

 लोगों के  दिलों में  अब  प्यार के फूल  कहाँ  खिलते हैं!
रक्षाबंधन भाईदूज जैसे  पर्व  भी अब  बोझ  से  लगते हैं!
मात्र खानापूर्ति की  खातिर  सब आकर  इस दिन मिलते हैं!
पर जीर्ण हुए  नाते  कब और कहां सिलते हैं!

बूढों और पुरखों की बोली क्यों हो गई है  मौन!
दादी नानी की  कहानी अब भला सुनता है  कौन?
परिवारों में ये कैसा एकाकीपन है!
दूर रहकर भी कितनी अनबन है!

अहंकार और दौलत की बलि चढ़ते इन रिश्तों को
आखिर संजोएगा कौन?
लगातार गहरी होती इन खाइयों को
भर पाएगा कौन?

अब कदम पहला किसी को उठाना होगा!
वरना इस वसुधा पर 'अपना' कहलाएगा  कौन!

©सुधा सिंह








शनिवार, 11 मार्च 2017

रिज़ल्ट का दिन..


सिया की मेहनत का आज गुणगान हो रहा है!
रिया की  कोशिशों का भी खूब बखान हो रहा है!

जहाँ प्रथम का चेहरा खुशी से लाल हुआ जा रहा है!
वही शुभम आज मां से आखें  चुरा रहा है!

ओम ने बाजार से खास मिठाइयां लाई हैं!
पर सोम के घर में खामोशी-सी क्यों छाई है?

खुशियों और गम का ये कैसा संगम है!
कहीं उदासी और मायूसी के सुर,
तो कही आनंद की सरगम है!

लग रहा है जैसे युद्ध का दिन है!
नहीं!........
आज तो रिज़ल्ट का दिन है!

दीपक आगे की कठिन पढ़ाई से घबरा रहा है!
सवालो का बवंडर  मन में भूचाल - सा उठा रहा है......

गणित के सवाल क्यों भूत बनकर मुझे इतना सताते हैं!
अकबर और बाबर मुझे नींद में भी डराते हैं!

अब पड़ोसी अपनी बेटी के प्रथम आने पर ख़ूब इतराएंगे!
पढ़ाई के नये नये टिप्स मुझे बताएंगे!

आगे क्या होगा?
पापा की झिड़की मिलेगी, उनका दुलार होगा?
या मूड उनका फिर से खराब होगा?
छोटी के प्रश्नों का आखिर मेरे पास क्या जवाब होगा?

आज वार्षिक कर्मफल का दिन है!
मन की कशमकश और उथल- पुथल का दिन है!

आज तो रिज़ल्ट का दिन है!
सच ही तो है ! आज युद्ध का दिन है!


©सुधा सिंह



मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

कलयुग या झूठ युग?

भागती रही जिससे मैं हमेशा!
जिससे हमेशा लड़ती रही!
वही झूठ न जाने क्यूँ मुझे अपनी ओर खींच रहा है!

क्यूँ अब मुझे वही सच लगने लगा है!
क्यूँ यह झूठ चीख चीख कर मुझसे कहता है  कि
हर ओर आज उसी का बोलबाला है!
वही आज की सच्चाई है!
 
क्यूँ वह पूछता है  मुझसे...
कि आखिर..
इस सच से तुझे मिला ही क्या है?
सच ने तुझे दिया ही क्या है?

इस प्रश्न ने मुझे मूक कर दिया!
और सोचने पर मजबूर कर दिया!
ये कलयुग है या झूठ युग  है!
क्या  सचमुच ..
सच आज दुर्बल हो गया है!
क्या सच का साथ  छोड़  दूँ और
झूठ का दामन थाम लूँ

आखिर.. दुनिया यू ही तो दीवानी नहीं झूठ के पीछे!

ठीक ही  तो है...
सोच रही  हू  कि..  झूठ  ही  कहूँ  और  झूठ  ही लिखूं ..
लिखूं
कि शिक्षक  हूँ.. फिर भी  खूब अमीर हूँ!
अपने  लिए समय ही समय  है मेरे पास!
लिखूं  कि  एक बहुत  अच्छी  जिन्दगी  जी  रही  हूँ
लिखूं  कि सच  का साथ  देकर..
मैंने  बहुत कुछ पाया है!
लिखूं  की शिक्षक हूँ कोई  गुलाम  नहीं!
लिखूं कि  इस युग मे भी विद्यार्थी  अपने शिक्षको  को मान-सम्मान  देते हैं!
लिखूं  कि मैंने अपने बच्चो को  वो  सब  दिया है जो  धनाढ्य  घरों के  बच्चों को आसानी से  मिल जाता है!
लिखूं  कि मेरे  बच्चे  किसी  मामूली सी  वस्तु के लिए  तरसते  नहीं है!
लिखूं की मेरा परिवार  मेरे  पेशे  से खुश हैं!सोच रही हूँ कि आखिर क्या क्या  लिखूं  और  क्या क्या  कहूँ क्या  क्या  छोड़ूं?

 क्या  सचमुच  दिल से यह सब कभी लिख  पाऊँगी!
क्या सचमुच झूठ को अपना पाऊँगी!
नहीं..
यह मुझसे  नहीं हो पाएगा!
कभी नहीं हो पाएगा!


सुधा सिंह