गुरुवार, 30 नवंबर 2017

मानवता की आवाज़





कुछ चाहतों, ख्वाहिशों का अंबार लगा है!
सपनों का एक फानूस आसमान में टंगा है!

उछल कर,कभी कूदकर,
उसे पाने की कोशिश में
बार बार हो जाती  हूँ नाकाम
जब कभी उदास, निराश हो बैठ जाती हूँ धरा पर
तो लगता है गड़ती जा रही हूँ..
 न जाने किस दलदल में, किस अँधेरे में....

फिर अकस्मात.... मानो कोई अदृश्य शक्ति,
एक अदृश्य आवाज़  मुझे संबल देकर..
मेरा हाथ, अपने हाथ में लेकर
मुझे उठाती है, मुझे थपथपाती है...
मेरे सामने, मीठे गीत गुनगुनाती है..
और मुझे फिर से अपने सपने को पाने को उकसाती है...
लेकिन....  थोड़ी देर..
 बस थोड़ी ही देर में... मुझे छोड़ जाती है.
शायद ...
शायद नहीं... हाँ... हाँ मेरे ही जैसे कई और भी तो हैं
जिन्हे जरूरत है उसकी.,
उसकी थपकियों की,
उसके प्यार की, उसके दुलार की!

न जाने कौन..
न जाने कौन.. इस समय...
 अपने सपनों को पूरा न कर पाने की व्यथा में... दम तोड़ रहा हो!
उसके सपने धराशायी हो रहे हो.
उसे भी जरूरत है उस शक्ति की..
जो मुझे समय- समय पर, मेरे अंतर्मन को..
 मेरे उजड़ते  सपनों को पाने के लिए मुझे परवाज देती हैं
जब मैं बैठ जाती हूँ,  मुझे आवाज देती हैं..

अब मैं भी वही आवाज़ बनना चाहती हूं
जो किसी के सपने को साकार करने  में उसके काम आ सके.
मैं ही नहीं हर कोई...
 हाँ.. हर कोई वह आवाज़ बन सकता है.
कइयों के नहीं... पर कम से कम किसी एक का जीवन सुधार सकता है.
और अपने भीतर के सुप्त इंसान को जगा सकता है.
दम तोड़ हो रही मानवता को पुनः पनपा सकता है!


(Pic credit :Google)

रविवार, 26 नवंबर 2017

निष्पक्षता

      निष्पक्षता एक ऐसा गुण है जो सबके पास नहीं होता. सदैव निष्पक्ष रहने का दावा करने वाला मनुष्य भी कभी न कभी पक्षपात करता ही है. एक ही कोख से जन्म देने के बाद भी दुनिया में सबसे अधिक सम्माननीय और देवी के रूप में पूजी जाने वाली मां भी कई बार अपने दो बच्चों में फर्क करती है तो समाज से कैसे निष्पक्षता की उम्मीद कर सकते हैं
      बड़ी से बड़ी कंपनियों और दफ्तरों, चाहे सरकारी हों या गैर सरकारी, उनमें भी बड़े अधिकारी अपने सभी कर्मचारियों के बीच पक्षपात करते हैं
       समान रूप से मेहनत और लगन से काम करने के बाद भी कई मेहनतकश  लोगों को पदोन्नति नहीं मिलती. इसके पीछे बड़े अधिकारियों की शारीरिक मानसिक अथवा आर्थिक भूख होती है .यदि इनमें से एक भूख को भी कोई मिटा दे तो अधिकारी गण उसी के पक्ष में हो जाते हैं और वह तरक्की की सीढ़ियां चढता चला जाता है. इसके लिए उसे अधिक मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि चाटुकारिता नामक एक खास गुण उसके लिए सभी बंद दरवाजों क़े ताले खोल देता है परंतु जो इस खास और अहम गुण का स्वामी नहीं होता, वह हाथ मलता रह जाता है.सिर्फ़ इतना ही नहीं कभी कभी वह अवसाद का शिकार हो जाता है. यह अवसाद अक्सर जानलेवा साबित होता है क्योंकि दफ्तर तो दफ्तर उसके घर में भी उसको उचित मान सम्मान नहीं मिलता.
       अतः निष्पक्षता एक ऐसा गुण है जो सबके बस की बात नहीं है पर इसका ढकोसला करने वाले लोग बहुत मिलते हैं. इनसे बचकर रहना ही हितकर होता है.

रविवार, 12 नवंबर 2017

जीवन की विडम्बनाएँ




बात नहीं करती मैं
 तारों और सितारों की
न ही मैं बात करती हूँ
खूबसूरत नजारो की
मैं बात करती हूँ
इंसानियत के पहरेदारों की

मैं बात करती हूँ
जीवन की विडम्बनाओं की
सालती हुई वेदनाओं की

बात करती हूं
मन में उठती हुई भावनाओं की
धनाभाव में मृतप्राय हुई
निरीह महत्वाकांक्षाओं की

मैं बात करती हूँ
गूदड़ी में पलने वाले लाल की
गरीब की थाली में
न पहुंचने वाली दाल की

कर्ज में डूबे
आत्महन्ता किसानों की
सीमा पर दुश्मन की बर्बरता से
शहीद होते जवानों की

मैं बात नहीं करती मंदिरों और मजारों की
मैं बात करती हूँ
सिसकती हुई रूह की
जूझती हुई जिन्दगी और उहापोह की

मैं बात करती हूँ
दम तोड़ती मासूमियत की
रोती बिलख़ती आदमियत की

मासूमो की आबरू को ताड़ ताड़ करती
मलिन निगाहों की
खुलेआम होते गुनाहों की

जाति पाती की भेट चढ़ती
निर्दोष चिताओं की
छलकपट करने वाले
बगुला भगत नेताओं की

बात नहीं करती मैं
जन्मदिन के उपहारों की
मै बात करती हूँ देश के गद्दारों की

माँ की कोख में
मरती हुई बेटियों की
पार्टियों में, शादियों में
बर्बाद होनेवाली रोटियों की
भेड़ की खाल में छुपे बैठे भेड़ियों की
नारी को चारदीवारी में कैद करती रूढ़ियों की

नहीं मैं नहीं बात करती
सजे धजे बाजारों की
मैं बात करती हूँ
संस्कारों और कुरीतियों में
बांधने वालों बेड़ियों की
दहेज की अग्नि में स्वाहा होती वधुओं की
जन की अस्था से खिलवाड़ करते
 ढोंगी साधुओं की

मैं बात नहीं करती अधिकारों की
बात करती हूँ
कर्तव्यों की,  ध्येय की.
बॉस द्वारा छीने जाने वाले
अधीनस्थों के श्रेय की
अपने अस्तित्व को स्थापित करने की
जद्दोजहद में लगे इंसानों की 
नई सुबह की आशा और उम्मीद लिए
आगे बढ़ने वाले दीवानों की

शनिवार, 4 नवंबर 2017

खर पतवार (एक प्रतीकात्मक कविता )

खर पतवार
 (प्रतीकात्मक  कविता) 

इक माली ने मदहोशी में
बीज एक बो दिया था! 
न ही मिट्टी उर्वर थी,
न बीज का दर्जा आला था! 

शीत ऋतु भी चरम पर थी 
औ लग गया उसको पाला था! 
माली लापरवाह बड़ा था
था जोश बड़ा जवानी का! 
न सिंचन पर ध्यान दिया 
न उचित खाद का प्रबंध किया! 
नर्सरी की साज सज्जा को 
निहारने में मस्त था! 
अन्य पौधों की विक्री में  
वह काफी ज्यादा व्यस्त था! 

माटी ने भी अपनी तो ममता नहीं लुटाई 
अपने ही जाए पर! 
खाद पानी की खातिर
वह भी तो निर्भर थी माली पर! 

बीज ने अब अंगड़ाई ली 
और अंकुर उसके फूट पडे! 
कमजोरी और दुर्बलता से
रहा न जाता उससे खड़े! 
जैसे तैसे बड़ा हुआ कुछ
पर खर पतवार की भांति था! 
पातें कुछ मुरझाई सी
और डाले टेढ़ी मेढ़ी थी! 
कांतिहीन, निस्तेज  था वह 
और काया में दुर्बलता थी 

पर माली होशियार बड़ा था 
एक भोला ग्राहक फंसा लिया! 
कुछ चंद रुपयों की खातिर 
उसको माली ने बेच दिया! 
वह भोला ग्राहक बाट जोहता 
कभी तो इसको फल होंगे! 
खाद पानी देता रहता कि
आज नहीं तो कल होंगे! 

बीत गए थे काफी अरसे 
इंतजार वह फल का करता! 
पर बिन आशा और बिना लक्ष्य के 
साँसे बीज लिया करता ! 
आत्मशक्ति की कमी बहुत थी 
कोशिश भी नाकाफी थी! 
फल वह कभी नहीं दे पाया
काम नहीं वह किसी के आया! 

अपने भोलेपन पर ग्राहक 
बहुत बहुत पछताया था! 
खाद दिया था, सींचा था 
प्यार से उसको पाला था! 
फेंक नहीं सकता था उसको 
वह अच्छे दिलवाला था!