शनिवार, 24 मार्च 2018

बेवफा मोहब्बत



न मालूम था कि तुम भी निकलोगे उन जैसे ही ..
खोल दी थी अपने दिल की किताब मैंने तुम्हारे सामने
उसके हर सफहे पर लिखी हर बात को गौर से पढ़ा था तुमने..
जिसमें लिखे थे मेरे सारे जज्बात, सारे एहसास...

वो स्याह, बदरँग, मैला - सा पन्ना भी तो तुमने देखा था जिसे मैंने सबसे छुपा कर रखा था...
पर बेहिचक तुम्हारे सामने मैंने उसे भी तो रखा था
और तुमने मुझे तसल्ली दी थी कि
तुम मेरे हो, कद्र है तुम्हें मेरी, मेरे एहसासों की, मेरी भावनाओं की...

फिर ऐसा क्या हुआ..
फिर ऐसा क्या हुआ कि..
तुमने मुझे रुसवा करने में जरा भी कसर न छोड़ी.
मखौल उड़ाया मेरा , मेरे अहसासों का ..
शर्मिंदा किया , उनके ही सामने जिसने मुझे जख्म दिए थे और कई बार उन जख्मों को कुरेद कर हरा भी किया था.. .
फिर मलहम भी लगाया था....
मलहम लगने से मुझे आत्मीयता का एहसास तो होता....
पर.. फिर भी न जाने क्यों घाव और गहरा होता जाता और पककर मवाद निकलने लगता ...

मलहम मिलावटी था बड़ी देर से अहसास हुआ
अमृत में जहर होगा कहाँ जानती थी मैं ...
मैं टूट रही थी भीतर ही भीतर..
ढूँढ रही थी एक सहारा और फिर मिल गए थे तुम
मैंने पाया था तुममें
वो अपनापन , वो हमसफर, वो राजदार .
पर मेरे अगाध प्रेम का ये सिला मिलेगा
नहीं जानती थी मैं ..
नहीं जानती थी मैं कि तुम भी खेलोगे
उनकी ही तरह
उनकी ही तरह वेदनाओं से उपहृत करोगे मुझे
तुम्हें खेलना ही था तो कह देते..
मैं ही ला देती कोई खिलौना
जी भर के खेल लेते...
तुमने मेरे जज्बात ही क्यों चुने ,
क्यूँ मेरे प्रेम से विश्वासघात किया
तुमने भी वही दिया जो बाकियों से मिला था मुझे .
फिर क्या अंतर है उनमें और तुममें.
आख़िर तुम निकले उनमें से ही एक... क्यों????
क्या है कोई उत्तर..???



रविवार, 18 मार्च 2018

माना पतझड़ का मौसम है.




घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा
तू हृदय घट में भरले उजास
मत पीछे हट, तू कर प्रयास

है पथिक तू, न ये भूलना
करने तुझे कई काज हैं
वो मानव ही तो मानव हैं
जिसमें उम्मीद और आस है

माना पतझड़ का मौसम है
 पर ये मौसम भी बीतेगा
तूफान तेरे पुरुषार्थ से
फिर दुबकेगा,  तू जीतेगा
और आसमान के आँचल से
फिर धुंध कुहासा छिटकेगा

बासंती लहरें आएँगी
कलियाँ कलियाँ मुस्काएँगी
कूकेगी प्यारी कोयलिया
जीवन के गीत सुनाएँगी
         
माना कि सफर आसान नहीं
है कौन जो परेशान नहीं
हर मेहनतकश, हर अभीत से
आँधियाँ भी दहला करती है

प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो तो भी
निर्वेद न हो, न शिथिल पड़ो
उम्मीद का दामन थाम कर
यलगार करो और आगे बढ़ो
रोशन होगी,  दिल की मशाल
 फिर देखना होगा कमाल
 फिर  देखना होगा कमाल......



बुधवार, 7 मार्च 2018

परिक्रमा





परिक्रमा

कौन नहीं करता परिक्रमा?
सब करते हैं
और जरूरी भी है परिक्रमा
परंतु अपनी ही धुरी से
जैसे चांद करता है धरती की परिक्रमा.
धरती करती है सूर्य की परिक्रमा.
और अनेकों ग्रह करते हैं सूर्य की परिक्रमा
ताकि वह अपनी धुरी से भटक ना जाएं.
दिग्भ्रमित न हो जाएं.
सब की सीमाएं होती हैं
सीमाओं के परे जाने से,
अतिक्रमण करने से
होता है सब को कष्ट
इसलिए जरूरी है परिक्रमा
पर अपनी ही धुरी में रहते हुए
ताकि न हो पथभ्रष्ट.

हम भी करते हैं परिक्रमा
पर अपनी लालसाओ की
अपनी चाहतों, इच्छाओं की,
अपनी जरूरतों की, चिंताओं की,
अपनी सांसारिक परेशानियों की,
यही नहीं वरन्
लोगों की सोच की,
उनकी कही बातों की

पर नहीं करते परिक्रमा
अपनी स्वयं की ,
अपने आत्मन की
नहीं करते परिक्रमा
अत्मचिंतन की, आत्ममंथन की

मिटाते हैं भूख अपने खूबसूरत से तन की,
अपनी अनवरत कार्यरत जेहन की,
पर भूल जाते हैं कि
भूख लगती है आत्मा को भी,
अंतःकरण को भी
उसकी भूख को कौन मिटाएगा?
क्या कोई दूसरा आएगा?
क्या कोई और आकर
हमें खुद से मुखातिब करवाएगा
या फिर कोई शुभ मुहुर्त निकलेगा....
यह नहीं होगा ...
हाँ
परिक्रमा जरूरी है
पर.. सबसे पहले स्वयं की
ताकि कुछ और पाने से पहले
पा सकें ख़ुद को ...
जान सके खुद को..
और पहचान सकें ख़ुद को!



सोमवार, 5 मार्च 2018

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है...... प्रेम गीत


धुन:
तुम्हें प्यार करते हैं, करते रहेंगे।
कि दिल बनके दिल में.......


चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।
छाई है मदहोशी चारों तरफ,
सुर्ख फूलों पे भँवरा दिवाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

बागों में चिड़िया चहकने लगी है,
कलियाँ भी खिलकर महकने लगी है।
कि गुम है मेरे होश चाहत में तेरी ,
मेरा होश मुझसे बेगाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

फिजाओं में बिखरी है खुशबू रूमानी,
हवाये भी कहती हमारी कहानी ।
है बिछी चांदनी देखो चारों तरफ़,
कि शमा में मगन परवाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

आँचल मेरा अब ढलकने लगा है,
पपीहा पीहू पीहू बोलन लगा है ।
उठती हैं दिल में तरंगे कई ,
उन तरंगों में दिल शायराना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

टिप - टिप बरसता है बारिश का पानी,
नीर तन में, अगन अब लगाने लगा है ।
तुम बिन मुझे अब तो भाए न कोई,
क्यूँ ये सारा जमाना बेगाना हुआ है।

चलो आओ मौसम सुहाना हुआ है,
ये दिल भी मेरा आशिकाना हुआ है।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

फाग कहीं यो बीत न जाए!





मैं बिरहन हूँ प्रेम की प्यासी
न रँग, न कोई रास है!
बदन संदली सूल सम लागे
कैसा ये एहसास है!

तुम जब से परदेस गए प्रिय
ये मन बड़ा उदास है!

बिना तुम्हारे रंग लगाए,
फाग कहीं यो बीत न जाए!
सखिया मोहे रोज छेड़ती
कहती क्यो तोरे पिया न आए!

टेसू पलाश के रंग न भाए,
गुलमोहर भी बिछ - बिछ जाए !
कस्तुरी सांसो की खुशबू,,
तुमको अपने पास बुलाए!

बिंदिया में अब चिलक न कोई,
झांझर भी मेरी रूठ गई है!
मेहँदी अब न सजन को राजी,
पाँव महावर छूट गई है!

काहे तुम परदेस गए प्रिय,
यह दूरी अब सही नहीं जाए!
पुरवईय्या तन अगिन लगाए,
तुम बिन हिय को कुछ नहीं भाए!

उर का द्रव बनकर निर्झरणी 
झर- झर झर- झर बहता जाए!
तेरे दरस को अंखियाँ तरसी,
पल - पल नयन नीर बरसाए!

न होली की उमंग कोई है,
न कोई उल्लास है!
तुम जब से परदेस गए प्रिय,
ये मन बड़ा उदास है!