शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

सुख का सूर्य

सुख का सूर्य है कहाँ, कोई बताए ठौर!
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण देख लिया चहुँ ओर!!
देख लिया चहुँ ओर कि बरसों बीत गए हैं!
चूते चूते घट भी अब तो रीत गए हैं!!
राम कसम अब थककर मैं तो चूर हो गया!
रोज हलाहल पीने को मजबूर हो गया !!
नेताओं के छल को मैं तो समझ न पाता !
निशि दिन उद्यम करने पर भी फल नहीं पाता !!
फल नहीं पाता, विधि ने कैसा रचा विधान!
खेतों में हल था मेरा, चूहे ले गए धान!!
आरक्षण के कारण, वे चुपड़ी रोटी खाते!
खोकर अपना हक, हम भूखे ही हैं  सोते !!
समीप देख परीक्षा हम जी जान लगाएँ!
बिना किसी मेहनत के वे पदस्थ हो जाएं!!
ज्यादती है यह सब, है नहीं बचा अब धैर्य!
कोई बता दो मुझे कहाँ है सुख का सूर्य!!
Pic credit :Google

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

अब लौट आओ प्रियवर..... 


अब लौट आओ प्रियवर.....
अकुलाता है मेरा उर अंतर..
शून्यता सी छाई है रिक्त हुआ अंतस्थल.
पल पल युगों समान भए
दीदार को नैना तरस गए
इंतजार में तुम्हारे पलके बिछी हैं
तुम बिन बिखरा बिखरा सा मेरा संसार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
कि थम जाती है मेरी हर सोच
तुम पर आकर
रुक जाता है वक़्त तुम्हें न पाकर
पांव आगे ही नहीं बढ़ते
वो भी ढूँढते हैं तुम्हें
रातें करवटों में तमाम हो जाती है
तुम बिन बेकार ये संसार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

बंद करती हूँ आँखें कि
नींद की आगोश में जाके
कुछ सुनहरे ख्वाब बुन लूँ
कुछ शबनमी बूँदों की तरावट ले लूँ
पारियों के लोक में पहुंच कर
दिव्यता का आभास कर लूँ
पर यह हो नहीं पाता क्योंकि तुम संग न हो
तुम बिन न कोई तीज है न त्योहार है प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
संदेश भेजा है  तुम्हें
मेरे प्रेम की भीनी भीनी
खुशबू लेकर हवाएँ गुजरेंगी,
जब पास से तुम्हारे,
गालों को तुम्हारे चूमते हुए,
कर लेना एहसास मेरे नेह का
कि तुम बिन चहुँ ओर सिर्फ अंधकार है प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

अब लौट आओ प्रियवर
कि रात के शामियाने से..
कुछ नशा चुराया है तुम्हारे लिए..
थोड़े से जुगनू समेटे हैं तुम्हारे लिए...
तारों की झालर सजाकर
सागर से रवानी भी ले आई हूँ तुम्हारे लिए
थोड़ी शीतलता चाँदनी भी दे गई है हमारे लिए
तुमसे मिलने का बस इंतजार हैं प्रियवर
अब लौट आओ प्रियवर

रविवार, 10 दिसंबर 2017

पुरवाई



अब स्वप्न हो गए.... 
वो मेड़ों के बीच से कलकल बहता जल 
वो पुरवाई, वो शीतल मंद बहता अनिल ,
गालों को चूमती वो मीठी बयार
वो फगुआ के गीतों की भीनी फुहार 
वो खेत, वो खलिहान
अब स्वप्न हो गए.... 

वो चने खोटना, नून मिरची लगाना,
औ चटखारे लेकर मजे से खाना, 
जाड़े में सुबह की कुनकुनी धूप सेकना 
वो 'रेखवा की माई' से घंटन बतियाना 
अब स्वप्न हो गए...... 

वो पकड़ी की फुनगी,  करेमुआ का साग
सुतली के फूलों की सब्जी का स्वाद  
वो चना, चबैना , और झंपियों का दौर 
रहट की आवाजे और ट्यूबवेल का शोर 
अब स्वप्न हो गए..... 

पानी जो भरते थे महरिन - महार 
वो डोली,वो बैना, वो नाई - कहार
वो निमिया की डारी पे झूला लगाना, 
सावन के गीतों को सखियों  संग गाना
अब स्वप्न हो गए..... 

बल्टी में भर- भरके आम चूसना 
अमिया पकाने को 'अड़से के पत्ते' जुटाना 
खेते खेतारी चलके पगडण्डी  बनाना
दशहरे में सूखे - सूखे पत्ते जुटाना
अब स्वप्न हो गए..... 

ओसारे में गौरैयों के मीठे से बोल 
'निबोली' चुगती मैना के सुनते किलोल 
दलाने में दुपहर को खटिया बिछाना
वो 'बेना' डोलाना और 'मउनी' बनाना
अब स्वप्न हो गए..... 

वो दूद्धी, वो पटरी,
वो बैटरी की राख 
मुंडेरों पे बैठा, 
वो काला काला काग 
अब स्वप्न हो गए..... 

खेतों में झूमती धान की  वो बाली 
पेड़ों पर कूकती, कोकिल मतवाली 
मोर की वो बानी, वो किस्से कहानी 
अब स्वप्न हो गए...... 

मेरी इच्छाओं, आकांक्षाओं और चाहतों तले 
मेरे सबसे सुनहरे पल दफ्न हो गए  
ये सबकुछ 
अब मेरे लिए स्वप्न हो गए..... 

सुधा सिंह ✒️


Pic credit :Google 






मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

शशि तुम चले गए

शशि तुम चले गए,
अपना आखिरी किरदार निभाने!
इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में
अपना नाम लिखवाकर,
तुम चले गए
ईश्वर की एक नई  फ़िल्म करने!

हमें हँसाया था , रुलाया था ,
भावाविभोर किया था तुमने!
माँ की कीमत क्या होती है
बहुतों को सिखाया था तुमने!

अपनी अभिनय कला का,
लोहा सबसे मनवाया था तुमने !
पद्‍म भूषण, फाल्के
अपने नाम करवाया था तुमने !

राज कपूर की 'टैक्सी' थे तुम!
कोई छोटा मोटा तारा नहीं,
बल्कि पूरी 'गैलेक्सी'  थे तुम!

बॉलीवुड और  हॉलीवुड
सब जगह  छाए थे तुम!
जवां दिलों की धड़कन बन
हसीनाओं के दिल में समाए थे तुम!


चमके थे कभी तुम 'चाँंद' बनकर
दुनिया के आकाश में!
चले गए  हो अब तुम
उस निराकार के प्रकाश में!

तुम जैसे 'बलबीर' को
दुनिया भुला न पाएगी!
बजेंगे गीत जब भी
तुम्हारी फिल्मों के
आँखे कइयों की छलक जाएंगी!

 जाते ही तुम्हारे हुआ
 एक अध्याय का अंत!
 श्रद्धांजलि, आदराँजलि
अर्पित तुम्हें कोटि अनंत.!

Pic credit :Google 

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

मानवता की आवाज़





कुछ चाहतों, ख्वाहिशों का अंबार लगा है!
सपनों का एक फानूस आसमान में टंगा है!

उछल कर,कभी कूदकर,
उसे पाने की कोशिश में
बार बार हो जाती  हूँ नाकाम
जब कभी उदास, निराश हो बैठ जाती हूँ धरा पर
तो लगता है गड़ती जा रही हूँ..
 न जाने किस दलदल में, किस अँधेरे में....

फिर अकस्मात.... मानो कोई अदृश्य शक्ति,
एक अदृश्य आवाज़  मुझे संबल देकर..
मेरा हाथ, अपने हाथ में लेकर
मुझे उठाती है, मुझे थपथपाती है...
मेरे सामने, मीठे गीत गुनगुनाती है..
और मुझे फिर से अपने सपने को पाने को उकसाती है...
लेकिन....  थोड़ी देर..
 बस थोड़ी ही देर में... मुझे छोड़ जाती है.
शायद ...
शायद नहीं... हाँ... हाँ मेरे ही जैसे कई और भी तो हैं
जिन्हे जरूरत है उसकी.,
उसकी थपकियों की,
उसके प्यार की, उसके दुलार की!

न जाने कौन..
न जाने कौन.. इस समय...
 अपने सपनों को पूरा न कर पाने की व्यथा में... दम तोड़ रहा हो!
उसके सपने धराशायी हो रहे हो.
उसे भी जरूरत है उस शक्ति की..
जो मुझे समय- समय पर, मेरे अंतर्मन को..
 मेरे उजड़ते  सपनों को पाने के लिए मुझे परवाज देती हैं
जब मैं बैठ जाती हूँ,  मुझे आवाज देती हैं..

अब मैं भी वही आवाज़ बनना चाहती हूं
जो किसी के सपने को साकार करने  में उसके काम आ सके.
मैं ही नहीं हर कोई...
 हाँ.. हर कोई वह आवाज़ बन सकता है.
कइयों के नहीं... पर कम से कम किसी एक का जीवन सुधार सकता है.
और अपने भीतर के सुप्त इंसान को जगा सकता है.
दम तोड़ हो रही मानवता को पुनः पनपा सकता है!


(Pic credit :Google)