शनिवार, 4 नवंबर 2017

खर पतवार (एक प्रतीकात्मक कविता )

खर पतवार
 (प्रतीकात्मक  कविता) 

इक माली ने मदहोशी में
बीज एक बो दिया था! 
न ही मिट्टी उर्वर थी,
न बीज का दर्जा आला था! 

शीत ऋतु भी चरम पर थी 
औ लग गया उसको पाला था! 
माली लापरवाह बड़ा था
था जोश बड़ा जवानी का! 
न सिंचन पर ध्यान दिया 
न उचित खाद का प्रबंध किया! 
नर्सरी की साज सज्जा को 
निहारने में मस्त था! 
अन्य पौधों की विक्री में  
वह काफी ज्यादा व्यस्त था! 

माटी ने भी अपनी तो ममता नहीं लुटाई 
अपने ही जाए पर! 
खाद पानी की खातिर
वह भी तो निर्भर थी माली पर! 

बीज ने अब अंगड़ाई ली 
और अंकुर उसके फूट पडे! 
कमजोरी और दुर्बलता से
रहा न जाता उससे खड़े! 
जैसे तैसे बड़ा हुआ कुछ
पर खर पतवार की भांति था! 
पातें कुछ मुरझाई सी
और डाले टेढ़ी मेढ़ी थी! 
कांतिहीन, निस्तेज  था वह 
और काया में दुर्बलता थी 

पर माली होशियार बड़ा था 
एक भोला ग्राहक फंसा लिया! 
कुछ चंद रुपयों की खातिर 
उसको माली ने बेच दिया! 
वह भोला ग्राहक बाट जोहता 
कभी तो इसको फल होंगे! 
खाद पानी देता रहता कि
आज नहीं तो कल होंगे! 

बीत गए थे काफी अरसे 
इंतजार वह फल का करता! 
पर बिन आशा और बिना लक्ष्य के 
साँसे बीज लिया करता ! 
आत्मशक्ति की कमी बहुत थी 
कोशिश भी नाकाफी थी! 
फल वह कभी नहीं दे पाया
काम नहीं वह किसी के आया! 

अपने भोलेपन पर ग्राहक 
बहुत बहुत पछताया था! 
खाद दिया था, सींचा था 
प्यार से उसको पाला था! 
फेंक नहीं सकता था उसको 
वह अच्छे दिलवाला था! 




रविवार, 22 अक्तूबर 2017

मैं अकेली थी


जरूरत थी मुझे तुम्हारी
पर..... पर तुम नहीं थे!
मैं अकेली थी!
तुम कहीं नहीं थे!

केवल तुम्हारी आरजू थी!
तुम्हारी जुस्तजू थी!
जो मुझे कचोट रही थी!
अकुलाहट, व्याकुलता के अँधेरों में घिरी हुई  मैं! तुम्हें खोज रही थी!
वो अंधेरा जब मुझे अपनी आगोश में समाहित करने को उतावला था!
मैं  बेचैन थी, छटपटा रही थी!
तुम्हारा संबल तलाश रही थी!
तुम्हारा साया भी मुझे,
तब अपने आसपास नजर नहीं आया !
तुम्हारी कसमें, तुम्हारे वादे,
आज सब बेमानी हो गए !

मेरे विश्वास को आहत किया तुमने !
एक बार नहीं, कई - कई बार!
हां! कई- कई बार  टूटी हूँ मैं!
कई- कई बार बिखरी हूँ मैं!
फिर भी खुद को समेटा है मैंने !
तुम्हारे घात ने,
मुझे हर बार पटका है जमीं पर,
पर फिर मैं अकेले संभली हूँ!
उग जाती हूँ मैं फिर से,
उस घास की तरह!
जिसे...
जिसे हर बार उखाड़ कर फेंक दिया जाता है,
मेड़ के उस पार अपनी मिट्टी से दूर!
शायद यही विधाता का लेख है!
शायद यही मेरी नियति है!
बार बार ठोकर खाना,
और फिर दोबारा,
एक सुखमय जीवन की आस करना!

चित्र साभार गूगल







सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

मुंबईकर थोड़ा धीरे चलो

मुंबईकर थोड़ा धीरे चलो
थोड़ी सी राहत की साँस ले लो
थोड़ा सब्र करो

माना मायानगरी है यह!
मृगमरीचीका है 
जो सिर्फ हमें भ्रमित कर रही है
हमें अपने जाल में फँसा रही है!
और हम जानते - बूझते फंसते जा रहे हैं!
पर हम तो समझदार हैं!
हमें आखिर क्या चाहिए!
हमें वही चाहिए न, जो बाकी सबको चाहिए!
फिर हम क्यों भाग रहे है?
सोचो..
थोड़ा धैर्य धरो
थोड़ा धीरे चलो ....

क्या और शहरों में लोग जीते नहीं!
क्या वो कमाते और खाते नहीं!
फिर हममे इतनी होड़ क्यो लगी है!
उनके पास समय है,
त्योहार मनाने का,
यार दोस्तों से मिलने का,
उनके घर जाने का,
उन्हे अपने घर बुलाने का!
क्यों हमारे यहाँ तीज त्योहार आते हैं,
और चले जाते हैं
पर हम उनका आनंद नहीं ले पाते हैं
क्यों हम अगले दिन की प्रेजेंटेशन को लेकर, इतने ज्यादा परेशान रहते हैं?
हमें आखिर क्या चाहिए?
हम क्यों भाग रहे है?
सोचो..
थोड़ा धैर्य धरो!
थोड़ा धीरे चलो......

क्या तुम्हें याद है-
अपनों के साथ पिछली
बार समय कब बिताया था?
परिवारवालों को यार - दोस्तों का
किस्सा कब सुनाया था?
बड़ा कुछ हासिल करने की खातिर
छोटी छोटी खुशियों के पल
हमने क्यों गवां दिए?
रात की नींद,
दिन का सुकून आखिर है कहाँ?
क्यों हम रोबोट हो गए हैं?
ये जीना भी कोई जीना है!
आखिर कब हम अपना जीवन जीएंगे?
हमें आखिर क्या चाहिए?
हमें वही चाहिए न जो बाकी सबको चाहिए?
फिर हम क्यों भाग रहे है?
सोचो..
थोड़ा धैर्य धरो!
थोड़ा धीरे चलो......

क्यों हम में इंसानियत बाकी न रही?
क्यों अपने आगे हमें कोई नजर नहीं आता?
क्यों हम इतने स्वार्थी हो गए हैं?
क्यों हमे अपने पड़ोसी का नाम नहीं पता?
क्यों हम केवल इल्जाम लगाते हैं?
क्यों अपनी जिम्मेदारीयो से पीछा छुड़ाते हैं?
क्यों कुछ गलत होता
देख कर हम आँखे मूँद लेते हैं?
हमें आखिर क्या चाहिए?
हमें वही चाहिए न जो बाकी सबको चाहिए!
फिर हम क्यों भाग रहे है?
सोचो..
थोड़ा धैर्य धरो!
थोड़ा धीरे चलो......

आज आत्म मंथन जरूरी है!
हम आखिर कहाँ खो गए!
यह जानने की जरूरत है!
हमे ख़ुद को खोजना है!
हमें आखिर क्या चाहिए?
हम क्यों भाग रहे है?

सोचो...
मुंबईकर सोचो..
थोड़ा धैर्य धरो!
थोड़ा धीरे चलो
और थोड़ा जी भी लो !  ......