बुधवार, 2 सितंबर 2015

अस्तित्व

अस्तित्व

माना, तू  पापा का दुलारा है।
माँ की आँखों का तारा है।
उनका प्यार, उनकी दौलत तेरे साथ है।
और तुझे सहारे की दरकार है।

 क्या हुआ कि मैं एक लड़की हूँ।
मेरा भी एक अस्तित्व है।
मैं अपना आसमाँ खुद तलाशूंगी।
मैं अपनी तकदीर खुद लिखूंगी।
मुझे किसी सहारे की जरुरत नहीं।
क्योंकि मेरे साथ ऊपर वाली सरकार है।

जाने कैसे एक ही कोख से जन्म लेने बाद भी
 बेटा अपना और बेटी पराई होती है।
यह सोचकर कई बार मेरी आँखे नम होती हैं।
पर मैं स्वयं ही सशक्त हूँ,
मुझे हार नहीं स्वीकार।

मेरा आत्मिवश्वास ,
मेरा सबसे बड़ा सहारा है।
मुझे मेरा आत्मसम्मान सबसे प्यारा है।
भीख पर तू जी सकता है।
मुझे तो उधार की जिंदगी से भी घृणा  है।

सोमवार, 31 अगस्त 2015

दिल की किताब




बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है ।
पर इस पर थोड़ी सी धूल जमी है,
कुछ दूषित नजरों के साये है ,
कुछ अपनों के है  कुछ पराये हैं,
इन्हें साफ़ करने की इक आस जगी है,
बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है।

कुछ पन्ने अभी कोरे है ,
कुछ पर काली स्याही है,
कुछ को कीड़े खा चुके ,
कुछ को खाने आये है,
बहुत दिनों बाद इन पर निगाह थमी है,
बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है।

कहीं भीगी पलकों की नमी है,
कहीं माँ के आंचल की गर्मी है,
कुछ में  मीठी मीठी यादें  छुपी है,
फिर भी  ये मेरे सपनों से सजी है,
बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है।

कहीं खुशियों का सवेरा है,
कहीं गहरे दुखों का अँधेरा है,
ये मेरी किताब है ,
इसे मैंने सजाया है ,मैंने सँवारा है,
बहुत दिनों बाद ये मुझसे मिली है,
बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है।

इसमें कुछ अंतरंग पलों की स्मृतियां है,
कुछ नन्हे मुन्नों की गूँजती किलकारियां है,
कहीं सबकुछ खो देने की हताशा है,
कहीं दुनिया पा लेने की अभिलाषा है,
ये मेरे अहसासों से सजी है,
बहुत दिनों बाद दिल की किताब खुली है।

रविवार, 30 अगस्त 2015

हो अग्रसर

हो अग्रसर ,तू  अग्रसर
हो अपने पथ पे अग्रसर।
सैलाब से हो 'गर' सामना ,
या कांटो भरी, तेरी  हो डगर।
हो अग्रसर, तू अग्रसर।।

जीना उसका क्या जीना है ,
जो बैठ गए थक हार कर।
पा जाते हैं वे हर मंजिल,
जो बढ़ते हैं ,होकर निडर।
हो अग्रसर ,तू अग्रसर ।।

करता है इशारा बढ़ने का,
समय का पहिया  घूमकर।
सरिता बहती ही जाती है ,
जब तक नहीं, मिले सागर।
हो अग्रसर ,तू अग्रसर ।।

विघ्न बहुत से आएंगे ,
और आकर तुझे सतायेंगे,
ये क्षणिक हैं,इनसे न डर।
अंजाम की चिंता छोड़ दे,
न विचलित हो कुछ सोचकर।
हो अग्रसर ,तू  अग्रसर ।।

मंजिल खुद गले लगाएगी ,
भरसक हो तेरा प्रयत्न गर।
आलस्य को तू त्याग दे ,
कटिबद्ध होकर कर्म कर।
हो अग्रसर ,तू  अग्रसर ।।

पंखो में भरके हौसले  तू ,
अपनी नई उड़ान भर।
नित नई दिशाएँ खोज तू,
तू नव नभ का निर्माण कर।
हो अग्रसर ,तू  अग्रसर ।।









शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

गुज़ारिश


मत खेल कभी जज़्बातों से,
मत रूह किसी की छलनी कर।
तेरी हस्ती मिट जायेगी,
बन्दा उसका चोटिल हो गर।

मासूम की आँखों से अश्रु,
गर बिना  बात के निकलेगा।
तू मिटटी में मिल जायेगा,
खुद को पहचान न पायेगा।

जब चोट पड़ेगी ईश्वर की,
आवाज तुझे न आएगी।
न तेरा कोई साथी होगा,
न मांगे मौत ही आयेगी।

'मालिक' हो साथ सदा जिसके,
कोई बाल न बाँका कर सका।
दिल में गर ज्वाला भड़की हो,
तो कौन कयामत रोक सका।

जब वक़्त का पहिया घूमेगा,
तो सबक तुझे सिखलायेगा।
निकलेगी हृदय से  'आह' अगर,
तेरा रोम- रोम जल जायेगा.....
तेरा रोम- रोम जल जायेगा।

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

वह 'नर' ही 'नर' कहलाता है

जो पीर पराई समझ सके,
संग ईश्वर उसके रहता है।
निज स्वार्थ त्याग कर जो अपना,
दूजे का दर्द समझता है।
है मानस वह बड़ा महान,
जो परहित सदा सोचता है

संताप समझके गैरों का,
नम आँखे जिसकी हो जाये
इंसान असल में है वो ही,
जो तूफां से टकरा जाये।
पौरुष जिसका हो अति बली,
वह महापुरुष बन जाता है।

बाधा स्वयं दूर हो जाती,
वह जोश में जब आ जाता है।
दृढ़ इच्छा शक्ति है जिसमें,
वह 'नर' ही 'नर' कहलाता है।
आसमान नतमस्तक होता,
और पहाड़ झुक जाता है।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

हर क्षण जीती हूँ मैं।


हर क्षण जीती हूँ मैं।

ज़र्रा ज़र्रा बिखरती हूँ मैं,
ज़र्रा ज़र्रा सिमटती हूँ मैं,
न जानू मैं  ,
कैसी कसक है ये !
न जानू मैं  ,
कैसा ये अहसास है!
क्षण- क्षण मेरी हस्ती ही
मुझे देती है चुनौती,
हौसले में दम और
उखड़ती सांसों में भरके प्राण ,
प्रतिपल जीवन से लड़ती हूँ मैं।
हर कसौटी को पार करती,
निराशा को मात देती ,
आशा को साथ लिए चलती हूँ मैं।
 हाँ ! हर क्षण जीती हूँ मैं।


गुरुवार, 20 अगस्त 2015

निज स्वरुप पहचान न पाया


निज स्वरुप पहचान न पाया
वक़्त ने ऐसा खेल रचाया।
देखके दुनिया का आडम्बर ,
नकली चोला मैं ले आया।।
इस चोले में  तपन है इतनी ,
यह मुझको अब समझ है आया।
देह मेरी क्यों जलती प्रतिदिन,
जल्दी मैं क्यों जान न पाया।।

देखके दूजे  खरबूजे को,
खरबूजे ने  रंग अपनाया।
पर जब पूछा इसका कारण,
भेद वह अपना खोल न पाया।।
 उसपर भी था चढ़ा आडम्बर,
 उसने अतःयह रूप अपनाया।
 कसर न छोड़ी छला सभी को,
 आस पास भ्रम जाल बिछाया।।

आँख मूँद ली सच्चाई से,
अच्छाई को दूर भगाया।
पीतल को समझा था सोना,
चमक गई तब मैं पछताया।।
अपनों को अपना न समझा,
सदा उन्हें फटकार लगाया।
उम्मीद लगाई थी सबसे ,
पर दूजा कोई काम न आया।।

 इंसानियत बदनाम हो गई,
 वहशीपन का चढ़ा जो साया।
 बुरे करम थे मेरे लेकिन,
 कलयुग पर इल्जाम लगाया।।
 दुनिया को समझा था पागल,
 पर मैं ही पागल कहलाया।

दुनिया देती रहेगी झांसे ,
अब यह मर्म समझ में पाया।।
नकली चोला देगा धोखा,
पहले क्यों मैं जान न पाया।
ऐसे करम किये क्यों मैंने,
ग्लानि से है मन भर आया।।

निज स्वरुप पहचान गया अब,
चाहे जितना देर लगाया।
हुई भले ही देर सही,
पर मुझको है अब होश तो आया।।
हे ईश्वर अब साथ दे मेरा
गर मैंने सही मार्ग अपनाया।।