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रविवार, 22 अक्तूबर 2017

मैं अकेली थी


जरूरत थी मुझे तुम्हारी
पर..... पर तुम नहीं थे!
मैं अकेली थी!
तुम कहीं नहीं थे!

केवल तुम्हारी आरजू थी!
तुम्हारी जुस्तजू थी!
जो मुझे कचोट रही थी!
अकुलाहट, व्याकुलता के अँधेरों में घिरी हुई  मैं! तुम्हें खोज रही थी!
वो अंधेरा जब मुझे अपनी आगोश में समाहित करने को उतावला था!
मैं  बेचैन थी, छटपटा रही थी!
तुम्हारा संबल तलाश रही थी!
तुम्हारा साया भी मुझे,
तब अपने आसपास नजर नहीं आया !
तुम्हारी कसमें, तुम्हारे वादे,
आज सब बेमानी हो गए !

मेरे विश्वास को आहत किया तुमने !
एक बार नहीं, कई - कई बार!
हां! कई- कई बार  टूटी हूँ मैं!
कई- कई बार बिखरी हूँ मैं!
फिर भी खुद को समेटा है मैंने !
तुम्हारे घात ने,
मुझे हर बार पटका है जमीं पर,
पर फिर मैं अकेले संभली हूँ!
उग जाती हूँ मैं फिर से,
उस घास की तरह!
जिसे...
जिसे हर बार उखाड़ कर फेंक दिया जाता है,
मेड़ के उस पार अपनी मिट्टी से दूर!
शायद यही विधाता का लेख है!
शायद यही मेरी नियति है!
बार बार ठोकर खाना,
और फिर दोबारा,
एक सुखमय जीवन की आस करना!

चित्र साभार गूगल







शनिवार, 2 जनवरी 2016

उम्र अभी कच्ची है मेरी ,



बाल श्रम

रंगीन किताबें बस्तों की,
मुझे अपनी ओर खिंचती हैं
मेरा रोम - रोम आहें भरता ,
और रूह मेरी सिसकती है।

अपनी बेटी की झलक तुझको ,
क्या मुझमें दिखाई देती नहीं।
मत भूलो एक इनसान हूँ मैं,
कोई रोबो या मशीन नहीं।

कभी जन्मदिन कभी वर्षगाँठ की,
आये दिन दावत होती है।
कभी एक निवाला मुझे खिलाने ,
की क्यों इच्छा होती नहीं।

चौबीस घंटे कैसे मैं खटूँ,
मुझपर थोडी सी दया कर दो।
निज स्वार्थ छोड़ दो तुम अपना,
आँखों में थोड़ी हया भर लो।

उस खुदा ने मुझे छला तो छला,
क्यों तुम मुझसे छल करते हो।
उसने तकदीर बिगाड़ी है,
तुम भी निष्ठुरता करते हो।

ऊँचे महलों के वारिस तुम ,
मैं झुग्गी झोपड़ी से आई।
दो जून की रोटी की खातिर,
बचपन मैं पीछे छोड़ आई।

उम्र अभी कच्ची है मेरी ,
श्रम इतना मुझसे होता नहीं।
मुझे मेरा स्कूल बुलाता है,
क्यों तुम्हे सुनाई देता नहीं।

देखे हैं ख्वाब कई मैंने ,
हौसलों की मुझमे ताकत है।
पोछा बरतन मत करवाओ,
कुछ बन जाने की चाहत है।

पोछा बरतन मत करवाओ,
कुछ बन जाने की चाहत है......


सुधा सिंह

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है। (एक प्रतीकात्मक कविता)



उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है।

चाहत तो ऊँची उड़ान भरने की थी।
पर पंखों में जान ही कहाँ थी!
उस कुकुर ने मेरे कोमल डैने
जो तोड़ दिए थे।
मेरी चाहतों पर ,
उसके पैने दांत गड़े थे।
ज्यों ही मैंने अपने घोंसले से
पहली उड़ान ली।
उसकी गन्दी नज़रे मुझपर थम गई।
वह मुझपर झपटने की ताक में
न जाने कब से बैठा था।
न जाने कब से ,
अपने शिकार की तलाश में था।
उसकी नजरों ने,
न जाने कब मुझे कमजोर कर दिया।
डर के मारे मैं संभल भी न पाई ।
पूरी कोशिश की ,
पर जमीन पर धड़ाम से आ गिरी।
फिर मेरा अधमरा शरीर था
और उसकी आँखों में जीत की चमक।
वह कुकुर अपनी इसी जीत का जश्न
रोज  मनाता है।
और अपनी गर्दन को उचका -उचकाकर
समाज में निर्भयता से घूमता है।
मानो उसने कोई विश्वयुद्ध जीत लिया हो।
उसके कुकुर साथी भी ,
इस कार्य में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं।
और कमजोरों पर ,
अपनी जोर आजमाइश करते हैं।
न जाने ऐसे कुकुरों के गले में ,
पट्टा कब पहनाया जायेगा !
तन के  घाव भले ही भर गए हैं,
आत्मा पर पड़े घाव कब भरेंगे !
क्या वो दिन कभी आएगा कि,
मैं दोबारा बेख़ौफ़ होकर
अपनी उड़ान भर पाऊँगी !
अपने आसमान को
बेफिक्र होकर छू पाऊँगी!
उस दिन-उस घडी का इंतजार
मुझे अब भी है।