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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

टूटी जब आशा की डोरी

 नवगीत:टूटी जब आशा की डोरी


टूटी जब आशा की डोरी,बढ़ते कदम उठाते हाला।

काली तमस गली को छाने, ढूँढे कोई नया उजाला।।


जकड़ निराशा के बंधन में 

छवि अपनी धूमिल करते हैं।

कर्मों को भूले बैठे जो,

वे कब ईश्वर से डरते हैं।।

सूझे उचित और ना अनुचित 

बढ़ती जब आँतों की ज्वाला।


भ्रम के अंधकूप में भटके,

जाने कैसी ये विपदा है

आत्मतुष्टि की गहन पिपासा 

बड़ी तात्क्षणिक ही सुखदा है

शब्दों की गरिमा जाने ना

व्यवहार हुआ है बेताला 




सुधा सिंह 'व्याघ्र'

3 टिप्‍पणियां:

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