कह दो न मुझे अच्छी,
यदि लगे कि अच्छी हूँ मैं
तुम्हारे मुँह से,
अपने बारे में,
कुछ अच्छा सुन शायद
थोड़ी और अच्छी हो जाऊँगी मैं,
अपने जीवन में कुछ बेहतर, न न..
शायद बेहतरीन, कर पाऊँगी मैं
बढ़ा दो न
अपनी प्यार भरी हथेली मेरी ओर
कि पाकर तुम्हारा सानिध्य,
तुम्हारी निकटता, शायद
निकल पाऊँ जीवन के झंझावातों से
और गिरते - गिरते संभल जाऊँ मैं
और दे देना,
मुझे छोटा - सा,
नन्हा- सा एक कोना अपने
हृदय की कोठरी में कि
कइयों जुबाने
मुझे लगती हैं, कैंची सी आतुर,
कतरने को मुझे
शायद तुम्हारे अंतस का
अवलंबन ही मुझे मनुष्य बना दे
बोलो क्या कर सकोगे तुम,
यह मेरे लिए, या, अपने लिए
क्योंकि तुम में और मुझमें
अंतर ही क्या है??
हो जाने दो, यह सम्भव
वस्तुतः तुम्हारा मैं
और मेरा तुम हो जाना ही
तो प्रकृति है न
यह समर्पण भाव ही तो
मनुष्यता कहलाती है
आओ तुम और मैं
हम दोनों,
आज से मनुष्य बन जाते हैं।
सुन्दर और प्रेरक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी 🙏
हटाएंBA2ndyearresult
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 04 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय 🙏
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय 🙏
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीया 🙏
हटाएंबेहतरीन रचना सखी 👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सखी 🙏
हटाएंधन्यवाद आदरणीय 🙏
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