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रविवार, 13 सितंबर 2020

शिव जी की स्तुति ( भजन)

 


शंकर भज लो जी, 

हाँ जी शंकर भज लो जी 

पूजन कर लो जी 

हाँ जी, शंकर भज लो जी 


शिवजी ही आराध्य हमारे

हम जीते हैं उनके सहारे 

पिनाक धारी, डमरूवाले 

शशांक शेखर, हैं रखवाले 

 सुमिरन कर लो जी 

(टेक :शंकर भज लो जी) 


भोले न चाहे चांदी सोना

उर में रखना भक्ति का कोना

दिल से जो एक बार पुकारें 

बाबा हरेंगे कष्ट हमारे 

आरती गा लो जी (टेक :शंकर भज लो जी) 


बेल पत्र से खुश हो जाएँ 

चलो धतूरा भांग चढ़ाएँ

प्रेम भजन से उन को मना लो 

जो कुछ चाहो शम्भु से पा लो 

वंदन कर लो जी (टेक :शंकर भज लो जी) 



गुरुवार, 10 सितंबर 2020

गणपति स्तुति :दोहे


1:

यही मनोरथ देव है, रखिए हम पर हाथ। 

सुखकर्ता सुख दीजिए , तुम्हें नवाऊँ माथ।। 


 2:

प्रथम पूज्य गणराज जी, पूर्ण कीजिए काज।

सकल मनोरथ सुफल हों, विघ्न न आए आज।।


 3:

वक्रतुण्ड हे गजवदन , एकदंत भगवान 

आश्रय में निज लीजिए, बालक मैं अनजान। 

4:

रिद्धि-सिद्धि दायी तुम्हीं, दो शुभता का दान 

ज्ञान विशारद ईश हे , प्रज्ञा दो वरदान।। 

 


5:

हे देवा प्रभु विनायका, गौरी पुत्र गणेश।

प्रथम पूजता जग तुम्हें , दूर करो तुम क्लेश।। 


6:

मुख पर दमके है प्रभा, कंठी स्वर्णिम हार।

प्रभु विघ्न को दूर करो, हो भव सागर पार ।। 


7:

ज्ञानवान कर दो मुझे , माँगूँ यह वरदान।

शरण तुम्हारे मैं पड़ी, देवा कृपा निधान।। 


8:

दुखहर्ता रक्षक तुम्हीं, तुम हो पालन हार।,

पार करो भव मोक्षदा, तुम ही हो भर्तार ।। 


9:

मंगलमूर्ति कष्ट हरो, संकट में है जान ।

आयी हूँ प्रभु द्वार मैं , रखिए मेरा मान ।।

 

10:

हे गणपति गणराज हे, दर्शन की है प्यास 

देव मेरी पीर हरो,तुमसे ही है आस।। 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

कह दो न मुझे अच्छी

 


कह दो न मुझे अच्छी, 

यदि लगे कि अच्छी हूँ मैं 

तुम्हारे मुँह से, 

अपने बारे में, 

कुछ अच्छा सुन शायद 

थोड़ी और अच्छी हो जाऊँगी मैं, 

अपने जीवन में कुछ बेहतर, न न.. 

शायद बेहतरीन, कर पाऊँगी मैं 


बढ़ा दो न 

अपनी प्यार भरी हथेली मेरी ओर 

कि पाकर तुम्हारा सानिध्य, 

तुम्हारी निकटता, शायद 

निकल पाऊँ जीवन के झंझावातों से 

और गिरते - गिरते संभल जाऊँ मैं 


और दे देना, 

मुझे छोटा - सा, 

नन्हा- सा एक कोना अपने 

हृदय की कोठरी में कि 

कइयों जुबाने

मुझे लगती हैं, कैंची सी आतुर, 

कतरने को मुझे 

शायद तुम्हारे अंतस  का 

अवलंबन ही मुझे मनुष्य बना दे 


बोलो क्या कर सकोगे तुम, 

यह मेरे लिए, या, अपने लिए 

क्योंकि तुम में और मुझमें 

अंतर ही क्या है?? 

हो जाने दो, यह सम्भव 

वस्तुतः तुम्हारा मैं 

और मेरा तुम हो जाना ही 

तो प्रकृति है न 


यह समर्पण भाव ही तो 

मनुष्यता कहलाती है 

आओ तुम और मैं 

हम दोनों, 

आज से मनुष्य बन जाते हैं।