IBlogger interview

सोमवार, 25 मई 2020

समय की रेत फ़िसलती हुई,



समय की रेत फ़िसलती हुई,
उम्र मेरी ये ढलती हुई,
करती है प्रश्न खड़े कई।

क्या वक्त है कि मुड़के पीछे देखें,
क्या वक्त है कि कुछ नया सीखें।
सीखा जो भी अब तलक,
कर उसको ही और बेहतर भई।
समय की रेत...

कब कद्र की मेरी तूने ,
मैंने चाहा तू मेरी बात सुने,
मन के भीतर कुछ खास बुने।
तू आया धरा पे मकसद से,
समझ निरा गलत है क्या,
और क्या है एकदम सही।
समय की रेत....

तेरे हिस्से में चंद बातें हैं।
और कुछ शेष मुलाकातें हैं।
समेटने कुछ बही खाते हैं।
अपनी रफ़्तार को बढ़ा ले तू,
है जो भी शेष उसे निबटा ले तू,
यूँ समझ के जीवन की साँझ भई।
समय की रेत....

11 टिप्‍पणियां:

  1. "अपनी रफ़्तार को बढ़ा ले तू,
    है जो भी शेष उसे निबटा ले तू,
    यूँ समझ के जीवन की साँझ भई। "...
    कटु सत्य .. रेत-घड़ी जैसी हर पल सरकती ज़िन्दगी और मूक दर्शक बना इंसान .. किसी प्रयोगशाला के मेढ़क की तरह .. पर नया कुछ भी सीखने की उम्र-सीमा तय नहीं है ..सिवाय सरकारी या शैक्षणिक संस्थानों में चंद तयशुदा उम्र-सीमा के .. शायद ... मन के हौसले आखिरी हृदय-स्पंदन तक भी कुछ नया करवा जाते हैं .. कई दफा ...

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    1. उत्तम चिंतन... आपके खूबसूरत विचारों का स्वागत है सुबोध जी.. रचना को मान देने के लिए शुक्रिया आपका

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 25 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. तू आया धरा पे मकसद से, समझ निरा गलत है क्या,
    सारगर्भित सृजन

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    1. बहुत बहुत स्वागत है आपका अखिलेश जी।प्रतिक्रिया के लिए अनेकानेक धन्यवाद🙏🙏🙏

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