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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

दुधमुँहा बचपन

 
क्या कहने
उस मासूमियत के
जो किसी वयस्क की चप्पलें
उल्टे पैरों में पहने
चली आई थी मेरे दरवाजे पर,
पाँवों को उचकाकर
धीरे धीरे अपने
कोमल हाथों से
कुंडी खटखटा रही थी
खोलकर दरवाजा
जब मैंने
उस नन्ही परी को देखा
तो सहसा चेहरे पर
मुस्कान ने दस्तक दे दी
उसे घर के भीतर बुला लूँ
यही सोच
मैंने उसकी ओर
बढ़ाया ही था अपना हाथ
कि छन छन करती
नन्हीं बुलबुल
अपने नन्हें कदमों से
अपने घर की तरफ दौड़ चली।
नन्हें पाँवों में छन -छन
करती पाजेब
और मासूम किलकारियाँ
अलौकिकता का अहसास लिए
पूरे वातावरण को गुँजा गईं
और मैं
घर की दहलीज पर खड़ी
उस दुधमुँहे बचपन में कहीं खो गई।


सुधा सिंह व्याघ्र





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