कासगंज की धरती की
उस रोज रूह तक काँप गई
शोणित हो गई और तड़पी वह
फिर एक सपूत की जान गई
मक्कारी के चूल्हे में
वे रक्तिम रोटी सेंक गए
वोट बैंक की राजनीति में
खेल सियासी खेल गए
था कितना भयावह वह मंजर
माँ ने एक लाल को खोया था
उस शहीद के पावन शव पर
आसमान भी रोया था
भारत माँ के जयकारों पर
ही उसको गोली मारी है
सत्तावादी, फिरकापरस्त
ये केवल एक बीमारी हैं
कुर्बान हुआ फिर एक चंदन
कुछ बनवीरों के हाथों से
क्या लौटेगा फिर वह सपूत
इन गलबाजों की बातों से
ओढ़ मुखौटा खूंखार भेड़िये
क्यों मीठा बोला करते हैं?
क्यों सांप्रदायिकता का जहर
परिवेश में घोला करते हैं?
करते उससे ही गद्दारी
जिसकी थाली में खाते वो
जिसे माँ भारती ने पोसा
क्यों नर भक्षी बन बैठे वो?
सुधा सिंह 🦋
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