शुक्रवार, 4 मई 2018

वक्त हूँ मैं



वक्त हूँ मैं
मेरा इंतजार न करना
लौटता नहीं मैं कभी किसी के लिए
देखता हूँ समदृष्टि से सभी को
ज्ञात है तुम्हें भी
उगता है सूरज समय से और
निकलता है चांद समय पर
समय से होते हैं परिवर्तित मौसम
नियत समय पर वर्षा,गर्मी और सर्दी
सब सुनते हैं केवल मेरी ही
उन्हें पता है कि मैं कितना अनुशासनप्रिय हूं
अवसर सबको देता हूँ

मैं ही नियति भी हूँ
मैं ही बनाता हूं और बिगड़ता भी मैं ही हूँ
चाहो तो तुम भी
भविष्य देख सकते हो अपना
अपनी मां में,अपने पिता में
अपनी सास में, अपने ससुर में,
तुम सीख सकते हो
अपने परिवेश से, अपने आसपास के वातावरण से
अपने समाज से कि जिसने मेरी कद्र की
उसे मैंने हमेशा ऊंचा उठाया

जिसने मुझे जाया किया
उसका क्या हश्र हुआ
कौन जानता है उसका पता,
 वह किस गर्त में गिरा
मैं भी नहीं जानता,
कि वह किस शून्य में विलीन हुआ

कैसा कल चाहते हो तुम अपने लिए
यह निर्भर है पूर्णतया तुम पर ही
बस इतना भर कहना है कि..
गंवाओं न मुझे
न करो इंतजार  मेरा
मैं लौटूंगा नहीं....
हूँ मैं भविष्य सुनहरा
या अंधकार से गहरा...


चमगादड़

   रात के साढ़े दस बज रहे थे. महीना अप्रैल का था पर तपन ज्येष्ठ मास से कम न थी. खूब गर्मी पड़ रही थी इसलिए आशीष, सिया और उनके दोनों बच्चे घर के बाहर का दरवाजा खोलकर हॉल में बैठ कर भोजन कर रहे थे. तभी सिया को कुछ अजीब - सा महसूस हुआ. उस की नजर ऊपर उठी. अचानक से अपने सिर के ऊपर चमगादड़ को उड़ता देख वह थोड़ी घबरा गई. वह चमगादड़ पंखे के आसपास यहां से वहां बड़ी तेजी से उड़ रहा था.  टीवी भी चल रहा था और सभी अपने रात के भोजन में व्यस्त थे. इसलिए शायद किसी का ध्यान उस चमगादड़ की ओर नहीं गया पर अचानक उसके मुँह से निकला, "आशीष, चमगादड़!
चमगादड़ को सहसा यूँ अपने ऊपर उड़ता देख सभी डर गए और अपना- अपना भोजन छोड़कर सभी छिपने की जगह ढूंढने लगे.
बेटी श्रेया भी तुरंत घर के मुख्य दरवाजे के पीछे जाकर छुप गई. आशीष और पृथ्वीज ने भी झट से जाकर पर्दे की ओट ली.
तभी सिया ने जाकर धीरे से लाइट और पंखा बंद कर दिया ताकि वह घर से बाहर निकल जाए और यह भी डर था कि पंखे से टकरा कर कहीं वह घायल न हो जाए और घाव लगाने पर घर में उसका रक्त यहां वहां बिखर जाए तो इन्फेक्शन का खतरा भी था.
अचानक हुई इस घटना में उसके दिमाग मे यह बात ही नहीं आई कि चमगादड़ रोशनी में अच्छे से नहीं देख पाते. इसलिए उसने बचते बचाते किसी तरह से जाकर लाइट जला दी ताकि वह घर से बाहर निकल सके .
"आख़िर घर में चमगादड़ आया कहाँ से?, "
यह बात किसी को समझ नहीं आ रही थी . घर की दोनों बालकनी में तो जाली लगी थी. केवल रसोईघर की एक खिड़की ही थी जिससे होकर चमगादड़ घर के भीतर आ सकता था और दूसरा रास्ता था घर का मुख्य दरवाजा. खैर थोड़ी देर बाद वह चमगादड़ किसी तरह अपने आप घर के मुख्य दरवाजे से होते हुए बाहर निकल गया. उसके निकलते ही सिया ने तुरंत दरवाजा बंद कर दिया और सबने राहत की साँस ली. वह चमगादड़ बिल्डिंग के पैसेज में काफी देर तक उड़ता रहा. इस बीच सभी पड़ोसियों ने भी अपने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए ताकि उस चमगादड़ की वजह से किसी को कोई नुकसान न पहुंचे.
ख़ैर बिल्डिंग के पैसेज से वह कब, कहाँ गया यह पता नहीं.

अभी छह महीने भी तो नहीं गुजरे, एक मामूली से चमगादड़ के कारण सिया और उसके पूरे परिवार को, खासतौर से श्रेया को कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा था. व‍ह इतनी ज्यादा बीमार पड़ी कि डाक्टरों ने उसे तीन महीनों तक बेड रेस्ट की सलाह दी. बारहवीं की छमाही परीक्षा तक वह दे न  पाई.   डेंगू टेस्ट, मलेरिया टेस्ट, टाईफोइड टेस्ट और और भी न जाने कितने ही अनगिनत टेस्ट हुए उसके. एम. आर. आई. टेस्ट भी किया गया। एक के बाद एक कई बीमारियों ने उसे घेर  लिया  था. वजन घटता जा रहा था.
वह लगातार कमजोर होती गई. अस्पताल के अनवरत चक्कर लग रहे थे. उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी कम हो गई थी कि बुखार उतरने का नाम ही नहीं लेता था. एक सौ पाँच डिग्री बुखार!
कभी किसी के मुँह से सुना न था कि किसी को एक सौ पांच डिग्री का बुखार हुआ हो. सिया रात रात भर श्रेया के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखती पर बुखार न जाता. अंत में उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था .कुछ दस एक दिन बाद अस्पताल से श्रेया को छुट्टी  मिल गई .
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पर एक हफ्ता अभी बीतने भी न पाया था कि  ऑफिस जाते समय आशीष की मोटर साइकिल एक ट्रक से टकराई.  टक्कर भी ऐसी जोरदार थी कि  मोटर साइकिल सड़क के दूसरी तरफ जा गिरी. उसके पुर्जे - पुर्जे बिखर गए. शुक्र है आशीष को ज्यादा चोट नहीं आई. घटना स्थल पर मौजूद कुछ लोगों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया.
इस दुर्घटना के कारण आशीष का पैर फ्रेक्चर हो गया था ,
दर्द और बंधे प्लास्टर के कारण वह एक महीने तक दफ्तर न जा सका. इस कारण उसका कामकाज और घर की आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई और रुपया तो पानी की तरह बह रहा था. श्रेया के इलाज में भी लाखों रुपए स्वाहा हो चुके थे. घर की माली हालत,
बेटी और पति की ऐसी स्थिति देखकर उसका दिल बैठ जाता पर किसी तरह वह अपने मन को समझा लेती.

बातों - बातों में एक दिन उसने अपनी सहेली ऋचा को बताया था कि उसके घर की बालकनी में एक चमगादड़ ने अपना निवास स्थान बनाया है तब ऋचा ने उसे सावधान भी किया था कि चमगादड़ का घर में आना अशुभ माना जाता है और किसी तरह वह उस चमगादड़ को अपने घर से निकाल दे. पर  सिया को इस बात में कोई सच्चाई नहीं लगी. उसे लगा कि इतना छोटा - सा मूक प्राणी किसी को क्या नुकसान पहुंचा सकता है और वैसे भी वह बालकनी में रहता है! उसे यह सब बातें दकियानूसी लगती थी. उसे लगता था यह महज अंधविश्वास है. इसलिए उसने ऋचा की  इस बात पर गौर नहीं किया. ऋचा ने कई बार सिया से चमगादड़ के बारे में पूछ कर किसी तरह से उसे बालकनी से भगाने की बात कही लेकिन हर बार वह अपना तर्क देकर इस बात को टाल जाती. ऋचा ने भी इस विषय पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं समझा और इस पर बात करना बंद ही कर दिया . यह बात अब आई गई हो गई थी .

किन्तु चमगादड़ की अशुभता अब अपना प्रमाण देने लगी थी . लगातार घर में बढ़ती परेशानियों , श्रेया की बीमारी और आशीष की
दुर्घटना ने ऋचा की बात याद दिला दी. इसलिए मौका निकालकर उसने सबसे पहले बालकनी में जाली लगवाई ताकि किसी तरह वे लोग चमगादड़ से छुटकारा पा सकें .

सच है कि कई बार जो बातें हमें अंधविश्वास भरी लगती हैं उनमें एक सच्चाई छिपी होती है.

दरअसल वास्तु के अनुसार घर में इनके प्रवेश के साथ ही नकारात्मक शक्ति का भी प्रवेश होता है.. यहां तक की ये मृत और बुरी आत्माओं के साए का भी वाहक होते हैं ।
नकारात्मक उर्जा से परिजनों में झगड़े और विवाद की परिस्थितियां बनने लगती हैं और दूसरे अनिष्ट की सम्भावनाएं बढ जाती हैं।
वास्तु के अनुसार जिस घर में चमगादड़ प्रवेश होता है वह जल्द ही खाली मकान बन जाता है.. घर के सदस्य वहां से जाने लगते हैं और वहां सन्नाटा छा जाता है।
इन के वास के साथ ही घर के परिजनों पर मौत का साया छा जाता है।
चमगादड़ का घर में आना मौत का संकेत होता है|
चमगादड़ के घर में आने से मौत को आमन्त्रण मिलता है इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी हैं। असल में इनके पंखों में बेहद घातक बैक्टीरिया होते हैं। इनके इन्फेक्शन से इन्सान की मौत हो सकती है। दुनिया में इनके हमले से मौत के कई मामले सामने आ चुके हैं। आज के समय में इबोला जैसे घातक बिमारी भी इन्हीं की वज़ह से फैल रही है। इबोला से जुड़े ताजा शोध में इस बात की पुष्टी हुई है कि चमगादड़, बन्दर और गोरिल्ला इस बीमारी के वाहक हैं। इस तरह की लालइलाज बिमारियों के वाहक होने का कारण ही यह कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति पर यह हमला कर दे तो समझों उसकी मौत हो गई।
(साथियों, यह  कोई अंधविश्वास नहीं है. यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है .)



बुधवार, 2 मई 2018

दरमियाँ




कह दो हवाओं से कि दरमियाँ न आएँ 
      दूरिया उनसे अब और सही जाती नहीं
            उनके रुखसारों को जब चूमती हैं वो
                   तो रकीब सी लगती हैं





                        सुधा सिंह 🦋 02.05.18

जिन्दगी - 3



नही छोड़ती कोई कसर, जिन्दगी हमें आजमाने में
एक मजदूर ही तो हैं हम, जीवन के इस कारखाने में

गिर्द बांध दिया है इसने, इक ऐसा मोह बंधन
 जकड़े हुए हैं सब, इसके तहखाने में

दुख देखकर हमारा, हो जाती है मुदित ये
सुख मिलता है इसे, हमें मरीचिका दिखाने में

जिद्दी है ये बड़ी ,ज्यों रूठी हो माशूका  ,
बीत जाती है उम्र पूरी, अपना इसे बनाने में

कब साथ छोड़ दे ये, नहीं इसका जरा भरोसा
इस जैसा बेवफा भी, नहीं कोई जमाने में

रहती है सब पर हावी, चलती है इसकी मर्जी
सौगात उलझनों की, है इसके खजाने में

क्रूर शासक सदृश ,प्रतिपल परीक्षा लेती
रहती सदा ही व्यस्त, मकड़जाल बनाने में

सुधा सिंह 🦋  01.05.18

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

अस्तित्व है क्या....




अस्तित्व है क्या?
क्या रूप नया!

क्या जीवित रहना अस्तित्व है?
या कुछ पा लेना अस्तित्व है?

ये अस्तित्व है प्रश्नवाचक क्यों?
और सब है उसके याचक क्यों?

आख़िर
क्या है ये??

सत्ता... अधिकार...या प्रकृति...
वजूद... या फिर.. उपस्थिति ???
अजी कब तक और किसकी????

आए कितने ही, गए कितने,
पर अस्तित्व कहो टिके कितने!

जो जिए मात्र अपने लिए,
तो अस्तित्व अहो किसके लिए!

यदि सत्ता का एहसास है,
तो दंभ सदैव ही पास है!

अहसास है अधिकार का,
तो अस्तित्व है अहंकार का!

हो दया धर्म, मानवता हीन,
तो अस्तित्व हो गया सबसे दीन!

जो बात प्रेम से हो जाए,
वो लड़के कहाँ कोई पाए?

कर नेकी, दरिया में डाल!
फिर होगा उत्थान कमाल!

बस कर्म करें और धीर धरें ,
यूँ निज भीतर अस्तित्व गढ़े

छोड़कर सब दंभ, अभिमान!
करें निज प्रकृति का संधान!

केवल मानव हम बन जाएँ
तो अस्तित्व हमें मिल जाएगा
जीवन में अच्छे कर्म किए
तो भाग कहाँ फिर जाएगा
वह पीछे दौड़ लगाएगा
हाँ.. पीछे दौड़ लगाएगा

सुधा सिंह 🦋 26.04.8




उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala

उस घडी का इंतजार मुझे अब भी है- Amarujala: चाहत तो ऊँची उड़ान भरने की थी। पर पंखों में जान ही कहाँ थी! उस कुकुर ने मेरे कोमल डैने जो तोड़ दिए थे। मेरी चाहतों

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

ये कैसी उकूबत थी उनकी

 ये कैसी उकूबत थी उनकी


ये कैसी उकूबत थी उनकी,
 हमें चोटिल ज़रर कर गए
हमने लिखी इबारतें सदा उनके नाम की
बिन पढे ही उन्हें वो बेकदर कर गए

उनसे पूछे कोई उनकी बेवफ़ाई का अस्बाब
हम तो अपनी ही कफ़स में जीते जी मर गए

बह के आँखों से अश्कों ने लिखी तहरीर ऐसी
कि बज्‍म में जाने अनजाने ही हमें रुसवा कर गए

बनके मुन्तजीर राह उनकी हम तकते रहे
वो हमें अनदेखा कर बगल से यूँ ही गुजर गए

दर रोज वो बढ़ाते रहे रौनक-ए - महफिल 
शाम-ओ-सुबह हमारी तो तीरगी में ठहर गये

हर साँस में हम करते रहे इबादत जिसकी
देखा एक नजर जब उन्होंने,हम तरकर उबर गए

सुधा सिंह 🦋


उकूबत= दंड, सजा,
ज़रर= घाव, क्षति, शोक, विनाश, बरबादी
अस्बाब= कारण, वजह, साधन


मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

तफ़ावत



उनकी कुरबत भले ही मेरे
रकीब के नसीब हो 
जो चेहरे पर तबस्सुम खिले उनके, 
तो तफ़ावत भी उनकी 
मंजूर है हमें





सुधा सिंह 🦋

तफ़ावत: दूरी, फासला
कुरबत :निकटता


मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

यक्ष प्रश्न



यक्ष प्रश्न

जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,
और बढ़ जाती हूँ एक कदम
आगे की ओर
सोचती हूँ कदाचित
इस पथ पर कोई वाजिब जवाब
जरूर मिल जायेगा।
पर न जाने किस शून्य में
विचरण करके एक नए प्रश्न के साथ
वह तीर मेरे सामने दोबारा
उपस्थित हो जाता है
एक यक्ष प्रश्न-सा..
जो भटक रहा है अपने युधिष्ठिर की तलाश में
और तलाश रहा है मुझमें ही
अपने उत्तरों को..

और मैं नकुल, सहदेव, भीम आदि की भाँति
खड़ी हूँ अचेत, निशब्द,
किंकर्तव्य विमूढ़,
सभी उत्तरों से अनभिज्ञ.
'यक्षप्रश्नों' की यह लड़ी
कड़ी दर कड़ी जुड़ती चली जा रही है.
कब होगा इसका अंत, अनजान हूँ
"कब बना पाऊँगी स्वयं को युधिष्ठिर"
यह भी अनुत्तरित है.

हर क्षण, यक्ष, एक नया प्रश्न शर,
छोड़ता है मेरे लिए.
पर प्रश्नों की इस लंबी कड़ी को
बींधना अब असंभव- सा
क्यों प्रतीत हो रहा है मुझे .
न जाने, मैं किस सरोवर का
जल ग्रहण कर रही हूँ
जो मेरे भीतर के युधिष्ठिर को
सुप्तावस्था में जाने की
आवश्यकता पड़ गई !
क्यों युधिष्ठिर ने भी
चारों पाण्डवों की भांति
गहन निद्रा का वरण कर लिया है!
कब करेगा व‍ह अपनी
इस चिर निद्रा का परित्याग!
और करेगा भी कि नहीं!
कहीं यह प्रश्न भी
अनुत्तरित ही न रह जाए!

सुधा सिंह 🦋
    

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

जरूरी है थोड़ा डर भी


जरूरी है थोड़ा डर भी
 मर्यादित अरु सुघड़ भी. 
 इसी से चलती है जिंदगी,
 और चलता है इंसान भी. 

जो डर नही
तो मस्जिद नहीं ,मंदिर नहीं. 
 गुरुद्वारा नहीं और गिरिजाघर नहीं.
और खुदा की कदर भी नहीं. 

 ना हो डर,
रिश्ते में खटास का, 
 तो मुंह में मिठास भी नहीं. 
 डर न हो असफलता का, 
 तो हाथ में किताब भी नहीं. 

डर नही जो गुरु का, 
तो विद्या ज्ञान नहीं. 
डर ना हो इज्जत का, 
तो मर्यादा का भान नहीं

डर न हो कुछ खोने का, 
तो कुछ पाने का जज्बा नहीं. 
जो डर नहीं जमीन जायदाद का, 
तो कोई अम्मा नहीं, कोई बब्बा नहीं. 


डर नहीं तो, सभी नाते बड़े ही सस्ते हैं. 
डर नहीं तो, सब अपने - अपने रस्ते हैं.

ये डर है, तो रिश्ते हैं. 
ये डर है, तो प्यार की किश्तें हैं

तो जरूरी है थोड़ा डर भी. 
मर्यादित अरु सुघड़ भी. 
इसी से चलती है जिंदगी,
और चलता है इंसान भी. 


    

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

मृत हूँ मैं!




हमेशा से ऐसा ही तो था

हाँ.. हमेशा से ऐसा ही था
जैसा आज हूँ मैं
न कभी बदला था मैं
और ना ही कभी बदलूंगा
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे पास...
आत्मा तो कभी थी ही नहीं
भीड़ के साथ चलता हुआ
एक आदमी हूँ मैं
हाँ.. आदमी ही हूँ
पर विवेक शून्य हूँ मैं
क्योंकि... मृत हूँ मैं!

देखता हूँ  शराबी पति को
बड़ी बेरहमी से,  पत्नी को
मारते हुए, दुत्कारते हुए
पर.. मैं कुछ नहीं करता
'ये उनका आपसी मसला है!'
कहकर पल्ला झाड़ लेता हूँ मैं
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

मेरी आँखों के सामने
किसी मासूम की आबरू लुटती है
और मैं.. निरीह सा खड़ा होकर देखता हूँ..
न जाने क्या सोचता हूँ
मेरे अंतस का धृतराष्ट्र
कुछ नहीं करता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

पर जब बारी आती है
कैंडल मार्च की
तो मैं भी.. कभी - कभार,
हाँ.. कभी- कभार अपनी उपस्थिति
दर्ज करवाने से पीछे नहीं हटता
और कभी - कभार तो
दूसरों से प्रभावित होकर
उनकी राय को
एक सुंदर - सा
लबादा पहनाकर
उसे अपनी राय बना देता हूँ..
मेरी अपनी कोई राय नहीं..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

आठ बजे से छह बजे की नौकरी
में ही तो मेरा अस्तित्व  है
मैं किसी और के लिए
जी ही नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूं मैं!

कोई अम्बुलंस
बगल से जा रही हो
तो मैं.. उसे जाने का रास्ता नहीं देता
अरे.. उसी जैसा तो मैं भी हूँ न
अचेतन..
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मेरे ही आँखों के सामने
सरेआम.. कोई शहीद हो जाता है..
कोई गोलियों से भून दिया जाता है..
और मैं कुछ नहीं कर पाता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

देश के लिए मर मिटने की जिम्मेदारी
मेरे कंधों पर थोड़े ही है
वो काम तो सिपाहियों का है
आखिर.. इस देश से मुझे मिला ही क्या है
नहीं भाई...यह सब तो
मैं सोच भी नहीं सकता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

नेताओं को गाली देना
तो जन्म सिद्ध अधिकार है मेरा
पर एक अच्छा नेता बनकर
देश की कमान संभालना..
उसे ऊंचाई पर ले जाना..
मेरा काम नहीं है
चुनाव के दिन छुट्टी
समझ में आती है मुझे
पर वोट करना नहीं समझता
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

मैं ,मेरा के आगे..
मुझे दुनिया दिखाई नहीं देती
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

और शायद..हमेशा
ऐसा ही रहूँगा मैं
क्योंकि.. मृत हूँ मैं!

हाँ.. मृत हूँ मैं!