शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

सूरज फिर निकलेगा ,फिर चमकेगा।

संध्या चाहे कितनी भयावह क्यों न् हो।
सूरज फिर निकलेगा ,फिर चमकेगा।

संध्या तो संध्या है जब्  भी आती है
अपने साथ काली स्याह रातों
का पैगाम  ही लाती है
और सबके खुशनुमा जीवन में
भयावह अँधेरा
और गमगिनियां भर जाती है।
अपना विद्रूप
और अभद्र रंग दिखाती है।
कृष्ण पक्ष में तो और भी घनघोर हो जाती है।

पर सूरज क्योंकर डरेगा,
वह फिर निकलेगा ।
अपनी सुन्दर रश्मियों से
प्राकृतिक सुषमा को बढ़ाएगा।
सृष्टि को साक्षी मानकर अपने शौर्य को फिर प्राप्त करेगा।
अर्णव की बूंदें भी नया उल्लास  भरकर हिलोर मारेंगी।
और  एक नया जोश भरकर सबको सुधापान कराएंगी।
मदमस्त बयार अपना राग अलापेगी।
पक्षी अपना नितु नृत्य पेश करेंगे।

और तब संध्या और स्याह भयावह रात्रि को सती  होना पड़ेगा।
क्योंकि
सूरज फिर निकलेगा।


तलाश

तलाश
कुछ समझ नही आता जिंदगी....
तेरी गिनती दोस्तों में करूँ
या दुश्मनों में !
चिड़ियों की मानिंद दर रोज,
घोंसलों से दाने की खोज में निकलना।
फिर थक हार कर,
अपने नीड़ को वापस लौटना।
क्या केवल इसे ही नियति कहते हैं।
क्या केवल यही जिंदगी है।
आखिर तेरे कितने रंग हैं!
पर,
ऐ जिंदगी...
अब बहुत हो चुका.......
मैं अपने लिए थोड़ा वक़्त चाहती हूँ।
मैं थोड़ा सुकून चाहती हूँ
खुद को तलाशना चाहती हूँ।
खुद को पाना चाहती हूँ।
©सुधा सिंह~~

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

आखिर कितने खुदा......

तू तो खुदा है
तेरे पास  बहुतेरे काम होंगे ....
लाखों करोड़ों सवाल होंगे...
इसलिए हमारी छोटी- छोटी मुश्किलों के लिए तेरे पास समय नहीं ,
पर उनका क्या ??????
जो मेरी तरह साधारण मनुष्य है ।
हाड़ - मास के पुतले हैं
फिर भी खुद को खुदा समझते हैं।
हमारे छोटे -मोटे सवालों के जवाब देना...
उन्हें जरुरी नहीं लगता।
उन्हें अपनी शान में गुस्ताखी लगती है।
पर अपनी ही तरह दूसरे खुदाओं की शान में कसीदे पढ़ते हैं।
उनके गुणगान करते हैं.......
मुझे समझ नही आता....
तेरे अलावा और कितने खुदा हैं इस धरती पर प्रभु?
मुझे किसकी शान में झुकना है?
कुछ और भले नहीं, पर इसी सवाल का जवाब मुझे दे दो  प्रभु।
मेरा इतना हक़ तो बनता ही है।
मुझे इंतजार है तेरे जवाब का...
तेरे इन्साफ का......

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

मैं सत्य लिखती हूँ।


मैं.... परमपिता परमेश्वर का ,आभार लिखती हूँ।
जीवन को मधुर बनानेवाली ,खुशियों की बहार लिखती हूँ।
इनकार में  छुपा हुआ , इकरार लिखती हूँ।
सबला और अबला का ,संसार लिखती हूँ।
मैं जीत लिखती हूँ, मैं हार लिखती हूँ।
और शापित जीवन सार लिखती हूँ।

विश्वास को जो रौंदे, वो घात लिखती हूँ
मानवता हो शर्मसार ,वो आघात लिखती हूँ।
टूटे हुए दिलों के, जज़्बात लिखती हूँ
जब् आह निकले मुख से, वो हालात लिखती हूँ।

दर्द में लिपटा हुआ ,वह सत्य लिखती हूँ 
मन को जो करे घायल , वो असत्य लिखती हूँ
मैं अवसाद लिखती हूँ ,  आर्तनाद लिखती हूँ।

मैं शहर ही नहीं, मैं गाँव लिखती हूँ।
अमीरी जो दिखाये, वो ताव लिखती हूँ।
भाव ही नहीं ,मै स्वभाव लिखती हूँ।
आपसी रंजिश और मनमुटाव लिखती हूँ।

श्वसुर सास की मीठी, नोकझोक लिखती हूँ
बेटी- बहू पे लगी, रोकटोक लिखती हूँ।

मैं पीर लिखती हूँ, आँख का नीर लिखती हूँ।
सूई ही नही, मैं  शमशीर लिखती हूँ।
हताश हुए मन की, तस्वीर लिखती हूँ
बात हो गहरी, तो हो अधीर लिखती हूँ।

मैं लाज लिखती हूँ ,मैं सिर का ताज लिखती हूँ।
खोखली बातें नहीँ ,दिल का साज़ लिखती हूँ।

मन को जो छू जाये, वह अहसास लिखती हूँ।
जीना सिखा दे जो ,वो लमहा खास लिखती हूँ।

अंतर्मन में चल रही, मैं जंग लिखती हूँ।
गुजरा जो समय अपनों , के संग लिखती हूँ।

आकाश को जो नापे ,वो उड़ान लिखती हूँ।
वृद्धाश्रम में पड़े नातों का, अवसान लिखती हूँ।

जी हाँ!
मैं जीवन का हर रंग लिखती हूँ
मैं सत्य लिखती हूँ।

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

दोष किसका?


(इन पंक्तियों में मैंने उन बेटियों की व्यथा लिखने की कोशिश की है जिनका शराबी पिता  उन्हें घर में बंद करके न् जाने कहाँ चला गया  और उन  बच्चियों के शरीर में कीड़े पड़ गए इस घटना ने मुझे बहुत आहत किया।इसी प्रकार न् जाने ऐसे कितने ही लोग नशे की लत में पड़कर अच्छाई और बुराई के बीच का अंतर भुला देते हैं तथा गलत और अनुचित कार्य कर बैठते है।ऐसी घटनाएँ केवल निम्न वर्ग में ही नहीं होती अपितु कई धनाढ्य परिवारों और माध्यम वर्गीय परिवारो में भी यह आम है)


मुझको प्यारे पापा मेरे ,पर शराब उनको प्यारी है।
वो जब् भी घर में आ जाती ,पड़ती हम पर भारी है।
पापा पापा न् रह जाते ,जब वो हलक में उनके जाती है।
दुनिया उसकी दीवानी ,वो सबको नाच नचाती है।

मेरे पापा भी इसके ,चंगुल से बच नही पाये हैं
इसलिए तो पापा घर में, 'शराब सौतन' लाये हैं।
कभी कभी तो यही शराब, पापा को रंग दिखाती है
यहाँ -वहाँ से पिटवाती ,नाले से भेंट कराती है।

बच्चों की अठखेली उनको , जरा न् प्यारी  लगती है।
मम्मी से भी ज्यादा उनको, शराब न्यारी लगती है।
नौ बजते ही मेरे घर में , सन्नाटा छा जाता है।
हमें देखते ही उनकी आँखों में, गुस्सा आता है।

जब् तक हमको पीट न् लेते ,उनको नींद न् आती है।
माँ भी मेरी पिट- पिटकर ,मन मसोस रह जाती है।
माँ डर -डर कर हमें पालती,रोती है चिल्लाती है
अपनी इस सौतन के आगे ,कुछ भी कर न् पाती है।

खौफ था पापा का इतना कि, रूह भी काँपा करती थी।
भविष्य हमारा उज्जवल हो ,यह सोच के माँ सब सहती थी।
घर के बाहर रात बिताने ,कई बार मजबूर हुए ।
पड़ोसियों से पनाह मांगी ,घर से निकले डरे हुए।

कभी -कभी तो दिन में भी हम , घर में अपने कैद हुए।
रात - रात भर सिसक -सिसक कर, तकिये भी थे नम हुए।
ठिठुर- ठिठुरकर सर्द रात , हम छत पे गुजारा करते थे ।
पापा मेरे मस्त  होके 'एसी' में सोया करते थे।

बेटे से है प्यार उन्हें ,बस उसे दुलारा करते हैं।
बेटी सिर का बोझ है कहके, माँ को कोसा करते हैं।
कहते बेटी अपने घर जाये, उससे हम छुटकारा पाये।
अपना सारा दुःख और दर्द ,अपने घरवालों को बताये ।

हमसे न् कुछ लेना देना ,वो तो अब है हुई पराई।
चाहे वो सुख से जिए वहाँ पर, चाहे रहे सदा कुम्हलाई।
कितने घर बर्बाद है होते , लत जब् इसकी लगती है।
शासक इतनी बुरी है ये, अपनों में बैर कराती है।

जब् बोतल से बाहर आती, अपना  रंग दिखाती है।
छोटे हो या बड़े हो वो ,सब को बहुत रुलाती है।
जिस घर में भी पाँव धरे उसे तहस नहस कर जाती है।
इंसाँ इसको जब् भी पिए ,ये उसको पी जाती है।

समझ न् आता दोष है किसका
पापा का या इस शराब का
या मेरे बेटी होने का ????????

चित्र :
गूगल साभार



मंगलवार, 5 जुलाई 2016

रैट रेस









कलयुग अपनी चाल चल रहा , ठप्प पड़ा अनुशासन।
मासूमो का चीरहरण,करता रहता दु:शासन।
सच्चाई कलयुग में दासी, झूठ कर रहा शासन। 
गंधारी की आँख पे पट्टी ,है धृतराष्ट्र का प्रशासन।

चौसर का हैं खेल खेलते, जैसे मामा शकुनि।
धराशायी करके ये सबको ,जगह बनाते अपुनी।
छल करने में तेज बड़े ,चाहे घट जाये अनहोनी।
रैट रेस में हर कोई शामिल ,सांवली हो या सलोनी।
मानवता को ताक पे रखके जेबें भरते अपनी।
गैरों के घर फूंक फूंक कर आँख सेकते अपनी।


धूल झोंकते आँख में सबकी, साधु बनकर ठगते।
धोखेबाजी खून में इनकी, दोहरे मापदंड है रखते।
पड़ी जरुरत तलवे चाटे ,शर्म न इनको आती।
हैं ये भेड़िये अवसरवादी ,आत्मग्लानि नहीं होती।
चापलूसी और चाटुकारिता ,इनके दो हथियार हैं।
कुर्सी पर काबिज होने को, रहते ये तैयार हैं।


सुधा सिंह

शनिवार, 28 मई 2016

मन की बात

 इतना जान लें बस हमें कि हम कोई खिलौना नहीं ,
चोट लगती है हमें और दर्द भी होता है ।
हमारे भीतर भी भावनायें है जो आह बनकर निकलती हैं
टीस तब भी होती है ,जब मौसम सर्द होता है।

कलयुग में जन्म लिया है जरूर, पर सतयुगी विचार रखते हैं।
जिसे प्यार करते हैं उसे हृदय में छुपाकर रखते हैं।
जान उसपर निछावर है जो पाक दिल के मालिक हैं।
जो हमें प्यार करते हैं, हम भी बस उन्हें ही प्यार करते हैं।

इल्म है हमें कि कुछ ऐसे भी है जो हमसे द्वेष रखते हैं।
मुँह पर कहना तहजीब के ख़िलाफ़ हैं इसलिये पीठ पीछे हमारा जिक्र करते हैं।
महफ़िल में बढ़चढ़कर बोलना हमारी आदत नहीं ये दोस्त।
झूठ और आडंबर से खुद को कोसों दूर रखते हैं।

कलयुगी हथकंडे न चलाएं लोग, चाहत बस इतनी करते हैं।
इन सबसे खुदा बचाए हमें, बस इतनी प्रार्थना करते हैं।