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शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

मेघा रे।।

कृषकों के दृग हैं अम्बर पर,
आ जाओ अब मेघा रे।
तपन करो अब दूर धरा की,
ऐसे बरसो मेघा रे।
दूर देश की छोड़ यात्रा,
दे दो दर्शन अपना रे।

नदी-ताल सब सूख रहे हैं,
पय बरसाओ मेघा रे।
नगर -ग्राम सब पड़ा है सूना, 
जल्दी बरसो बदरा रे।
नयन तुम्हारे दरस को तरसें,
 झर गया सबका कजरा रे।

बहुत ही चुकी लुका -छिपी ,
अब मत बहकाओ मेघा रे।
खग ,मृग ,पादप, नर औ नारी,
सबकी प्यास बुझाओ रे।
मोर पपीहे लगें नाचने ,
बरसो यूँ सारंगा रे।

लूह बदन को जला न पाये, 
जमके बरसो मेघा रे।
उमड़ घुमड़ के ऐसे बरसो ,
खुश हो जाये सगरा रे।
धान्य से सबका घर भर जाये,
भर जाये सबका अँचरा रे।

हम सबको अब मत तरसाओ 
अब तो आ जाओ  मेघा रे।।